नाथू ला का वीर: मेजर हरभजन सिंह, महावीर चक्र (मरणोपरांत)

भारतीय सेना के इतिहास में कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो न केवल वीरता की मिसाल बनती हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए देशभक्ति और बलिदान का सर्वोच्च उदाहरण भी स्थापित करती हैं। ऐसी ही एक कहानी है मेजर हरभजन सिंह की, जिन्होंने 1967 में सिक्किम-तिब्बत सीमा पर स्थित दुर्गम नाथू ला दर्रे पर अदम्य साहस का परिचय देते हुए देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।
मेजर हरभजन सिंह का नाम भारतीय सेना के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी असाधारण वीरता और देश के प्रति सर्वोच्च बलिदान ने उन्हें मरणोपरांत भारत के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार, महावीर चक्र का सम्मान दिलाया। यह वीरगाथा 1967 में सिक्किम-तिब्बत सीमा पर स्थित दुर्गम नाथू ला दर्रे की है, जहाँ उन्होंने अपनी कंपनी का नेतृत्व करते हुए चीनी सेना के विरुद्ध अद्वितीय साहस का प्रदर्शन किया।
प्रारंभिक जीवन और सैन्य करियर

मेजर हरभजन सिंह का जन्म 3 अगस्त, 1941 को पंजाब के अमृतसर जिले के वट्ठे भैंण गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री आशा सिंह था। एक सच्चे देशभक्त और कर्तव्यनिष्ठ युवा के रूप में, उन्हें 30 जून, 1963 को राजपूत रेजीमेंट में कमीशन प्राप्त हुआ। अपनी छोटी सी सेवा अवधि में भी उन्होंने अपनी दक्षता और नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। 1965 के भारत-पाक युद्ध में भी उन्होंने अपनी यूनिट के एडजुटेंट के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद में उन्हें राजपूत रेजीमेंट की 18 राजपूत यूनिट में तैनात किया गया।
नाथू ला संघर्ष: 1967

1967 में, भारत सरकार ने सिक्किम-तिब्बत सीमा पर शांति बनाए रखने के उद्देश्य से नाथू ला में तारों का बाड़ा (वायर फेंस) लगाने का निर्णय लिया। इस कार्य को इंजीनियर्स की 70 फील्ड कंपनी को सौंपा गया था, और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी 18 राजपूत बटालियन को दी गई थी। उस समय, मेजर हरभजन सिंह बटालियन की ‘ए’ कंपनी का नेतृत्व कर रहे थे और नाथू ला के उत्तरी स्कंध (नॉर्थ शोल्डर) पर तैनात थे।
11 सितंबर, 1967 को सुबह 05:40 बजे, इंजीनियर्स कंपनी ने तार अवरोध लगाने का काम शुरू किया। चीनी सेना, जो इस निर्माण का विरोध कर रही थी, ने तुरंत इसका जवाब दिया। देखते ही देखते एक भयंकर झड़प शुरू हो गई। चीनी सैनिकों ने सामने और बगल से एक साथ गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे 18 राजपूत और इंजीनियर्स कंपनी के जवान खुले मैदान में फँस गए। यह स्थिति अत्यधिक खतरनाक थी, जिसमें भारतीय सैनिकों के पास छिपने का कोई आवरण नहीं था।
सर्वोच्च बलिदान

संकट की इस घड़ी में, मेजर हरभजन सिंह ने एक सच्चे कमांडर की तरह, अपने सैनिकों में वीरता और दृढ़ संकल्प का संचार किया। उन्होंने खुले में फँसे अपने साथियों को ललकारते हुए हमलावरों पर झपटने का आदेश दिया।
मेजर हरभजन सिंह स्वयं आगे बढ़े और बहादुरी की एक अविस्मरणीय मिसाल पेश की। उन्होंने संगीन (Bayonet) के बल पर तीन चीनी सैनिकों को मार गिराया। इसके बाद, उन्होंने देखा कि शत्रु की एक लाइट मशीन गन (LMG) खुले में मौजूद भारतीय सैनिकों पर लगातार गोलीबारी कर रही थी। अपने साथियों की जान बचाने के लिए, उन्होंने एक हथगोला (Hand Grenade) उठाया और उस LMG को नष्ट करने के लिए शत्रु की ओर बढ़े। इस अदम्य साहस और दृढ़ निश्चय के साथ, उन्होंने एलएमजी को शांत कर दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में वह वीर गति को प्राप्त हो गए।
महावीर चक्र

मेजर हरभजन सिंह के इस उत्कृष्ट शौर्य, प्रेरणादायक नेतृत्व और सर्वोच्च बलिदान ने भारतीय सैनिकों को मनोबल दिया और उन्हें जवाबी कार्रवाई करने में सक्षम बनाया। नाथू ला की लड़ाई में मेजर सिंह का बलिदान एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उनके इस अभूतपूर्व कार्य के लिए, उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
उनकी बहादुरी आज भी हर भारतीय सैनिक के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि देश की रक्षा के लिए किया गया बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता।
जय हिन्द !
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