शौर्य गाथा: लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन – कांगो में महावीर चक्र विजेता

भारत भूमि वीरों की जननी रही है, और भारतीय सेना के जवानों ने देश की सीमाओं के भीतर और बाहर भी अपनी अदम्य वीरता का परिचय दिया है। इन्हीं महान सपूतों में से एक थे लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन (आई सी 11137), जिन्हें कांगो संकट (1962) के दौरान किए गए उनके असाधारण बलिदान और साहस के लिए मरणोपरांत भारत के दूसरे सर्वोच्च सैन्य अलंकरण महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
एक सच्चे सैनिक का जन्म और सफर

लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन का जन्म 14 दिसम्बर, 1937 को पंजाब के गुरदासपुर में श्री रूप लाल त्रेहन के घर हुआ था। अपनी मातृभूमि की सेवा का जज्बा लिए, उन्होंने 14 दिसम्बर, 1958 को भारतीय सेना की प्रतिष्ठित राजपूताना राइफल्स रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त किया।
संयुक्त राष्ट्र मिशन: कांगो की चुनौती

साल 1962 में, लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन की यूनिट, 4 राजपूताना राइफल्स, को संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना के भारतीय सैन्य दल के रूप में अफ्रीकी देश कांगो भेजा गया था। कांगो उस समय राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष से जूझ रहा था, और भारतीय सेना शांति बनाए रखने के लिए वहाँ तैनात थी। यह मिशन भारतीय सैनिकों के लिए एक विदेशी भूमि पर उच्च जोखिम वाली चुनौती थी।
29 दिसम्बर 1962: शौर्य और बलिदान का दिन

29 दिसम्बर, 1962 का दिन लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम दिन साबित हुआ। उनकी बटालियन को एलिजाबेथविले (Elizabethville) के एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सड़क जंक्शन पर आक्रमण करने का निर्देश मिला। यह जंक्शन विरोधी गुट के कब्जे में था, और वहाँ उनकी बड़ी संख्या में मौजूदगी निकटवर्ती हवाई अड्डे के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रही थी।
लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन को एक विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई: दुश्मन के ठिकानों का पता लगाने और शत्रु को मुख्य हमले की दिशा के बारे में भ्रमित करने के लिए एक गश्ती दल (Patrol) का नेतृत्व करना।
दुश्मनों के बीच अकेला योद्धा
लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन अपने गश्ती दल के साथ घने और दुर्गम जंगलों से होकर आगे बढ़े। वे पूरी सावधानी के साथ दुश्मन की खाइयों के लगभग 100 मीटर की दूरी तक पहुँच गए।
एकदम से, वे मशीन गन और राइफल की तेज गोलाबारी के भीषण घेरे में आ गए।
गश्ती दल ने बचने के लिए दाईं ओर मुड़ने का प्रयास किया, लेकिन वहाँ भी उन्हें भारी गोलीबारी का सामना करना पड़ा। उनका गश्ती दल लगभग पूरी तरह से घिर चुका था, जिससे उनकी जान पर खतरा मंडराने लगा। ऐसे विकट और जीवन-मरण की स्थिति में, लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन ने वह असाधारण साहस दिखाया जो उन्हें अमर कर गया।
रास्ता निकालने के लिए, उन्होंने अपने जीवन की परवाह न करते हुए, दुश्मन के ठिकानों पर बहादुरी के साथ व्यक्तिगत रूप से आक्रमण किया। उनके इस साहसिक और अचूक आक्रमण ने दुश्मनों के ठिकानों को सफलतापूर्वक नष्ट कर डाला।
कर्तव्यनिष्ठा की सर्वोच्च मिसाल
लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन के साहसिक कदम से, उन्होंने न केवल अपने गश्ती दल को दुश्मन के घातक घेरे से सुरक्षित बाहर निकाला, बल्कि अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को भी पूरी निष्ठा से पूरा किया। यह एक ऐसा कार्य था जो उच्च कोटि के नेतृत्व, असाधारण साहस और कर्तव्य के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
दुर्भाग्य से, इस साहसिक कार्रवाई के दौरान लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन को घातक चोटें आईं। देश और अपने साथियों को बचाते हुए, वे वहीं वीर गति को प्राप्त हुए (29 दिसम्बर, 1962)।
मरणोपरांत महावीर चक्र

लेफ्टिनेंट वेद प्रकाश त्रेहन की इस अद्वितीय वीरता, अटूट कर्तव्यनिष्ठा और सर्वोच्च बलिदान के लिए, उन्हें राष्ट्र ने मरणोपरांत महावीर चक्र से अलंकृत किया। उनका नाम भारतीय सेना के उन बहादुरों में हमेशा याद किया जाएगा, जिन्होंने शांति मिशन के दौरान भी देश का गौरव बढ़ाया और सर्वोच्च बलिदान दिया।
उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा सैनिक न केवल युद्ध के मैदान में, बल्कि हर चुनौती में अपनी मातृभूमि और अपने साथियों के प्रति अडिग रहता है।
जय हिन्द!
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