मेजर सत्यपाल चोपड़ा की कहानी अदम्य साहस, असाधारण कर्तव्यनिष्ठा और सर्वोच्च बलिदान की गाथा है। उनका जीवन एक ऐसा पाठ है जो हमें सिखाता है कि मातृभूमि की रक्षा में कोई भी कीमत अधिक नहीं होती।
प्रारंभिक जीवन और सैन्य करियर

मेजर सत्यपाल चोपड़ा का जन्म 12 नवम्बर, 1922 को हुआ था। उनके पिता श्री गौरी नाथ चोपड़ा ने उन्हें देशभक्ति और समर्पण के मूल्यों से परिचित कराया। उन्होंने 01 जुलाई, 1942 को मराठा लाइट इंफैन्ट्री में कमीशन प्राप्त किया और शीघ्र ही अपनी बटालियन के सबसे समर्पित अधिकारियों में से एक बन गए।
झंगर पर संकट

साल 1947 में, भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद, जम्मू-कश्मीर युद्ध छिड़ गया। 14 दिसम्बर, 1947 को पाकिस्तानी लुटेरों ने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण झंगर पर कब्ज़ा कर लिया। यह भारतीय सेना के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि झंगर के माध्यम से दुश्मन नौशहरा और पुंछ पर हमला करने की अपनी ताकत संगठित कर सकता था। झंगर पर पुनः अधिकार करना भारत के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया था।
पीर थिल नक्का की घातक टोह

झंगर को आज़ाद कराने की योजना बनाई गई, जिसके तहत नौशहरा-झंगर मार्ग पर दो ब्रिगेडों के साथ आगे बढ़ना था। मराठा लाइट इंफैन्ट्री, 50 पैरा ब्रिगेड के सेनामुख के रूप में कार्य कर रही थी।
25 मार्च, 1948 को, सुबह 0830 बजे, मेजर सत्यपाल चोपड़ा ने अपनी दो मराठा कंपनियों का नेतृत्व किया। उनका उद्देश्य था पीर थिल क्षेत्र में शत्रु की पोजीशन का पता लगाना और आक्रामक टोह लेना।
दुश्मन ने पीर थिल नक्का नामक एक दुर्जेय पहाड़ी स्थल पर पहले ही मज़बूत मोर्चाबंदी कर रखी थी। उन्होंने चतुराई से गोलीबारी तब तक शुरू नहीं की जब तक कि मराठे उनकी पोजीशन के 185 मीटर के बेहद करीब नहीं पहुँच गए। खुले मैदान में बिना किसी आवरण के, मराठा सैनिक अचानक चार मशीन गनों और 6 हल्के स्वचालित हथियारों की घातक गोलीबारी की चपेट में आ गए।
बलिदान की पराकाष्ठा

इस भीषण आग के बीच, मेजर सत्यपाल चोपड़ा ने एक अभूतपूर्व निर्णय लिया। अपने साथियों को आवरण फायर देने के लिए, उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए, एक प्लाटून के साथ एक मध्यवर्ती स्थान की ओर दौड़ लगाई। मुठभेड़ के दौरान, उनके चेहरे पर चोट लगी, लेकिन घायल होने पर भी, वह दुश्मन के पंजे में फंसे अपने साथियों को बचाने के लिए लगातार गोलीबारी करते रहे।
इसके बाद, मेजर सत्यपाल चोपड़ा ने दुश्मन की मशीन गनों के घेरे के अंदर, खुले में पड़े घायल साथियों को निकालने का निर्णय लिया। उन्होंने सफलतापूर्वक तीन घायलों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया।
लेकिन जैसे ही वह चौथे घायल साथी को निकालने का प्रयास कर रहे थे, एक घातक गोली उनके सिर पर लगी।
“अपने साथियों की जान बचाने के लिए मेजर चोपड़ा ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया।”
महावीर चक्र (मरणोपरांत)

मेजर सत्यपाल चोपड़ा का यह कार्य केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि मानवता और नेतृत्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन से ऊपर अपने सैनिकों की सुरक्षा को रखा।
उनके असाधारण नेतृत्व, अटूट कर्तव्यनिष्ठा और सर्वोच्च पराक्रम के लिए, मेजर सत्यपाल चोपड़ा को मरणोपरांत भारत के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
मेजर सत्यपाल चोपड़ा जैसे नायकों के बलिदान के कारण ही हमारे देश की सीमाएँ सुरक्षित हैं। हम उन्हें और उनके सर्वोच्च बलिदान को हमेशा याद रखेंगे।
जय हिंद!
मेजर सत्यपाल चोपड़ा अमर रहें!
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