कैप्टन कपिल सिंह थापा का नाम भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान लाहौर सेक्टर में उनके असाधारण पराक्रम और सर्वोच्च बलिदान ने उन्हें मरणोपरांत देश के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार, महावीर चक्र का हकदार बनाया।

प्रारंभिक जीवन और सैन्य विरासत
कैप्टन कपिल सिंह थापा का जन्म 02 नवंबर, 1937 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के देहरादून जिले के पंडितवाड़ी गाँव में हुआ था। उनके पिता, सूबेदार मेजर श्री डी.एस. थापा, स्वयं एक दीर्घकालिक सैन्य पृष्ठभूमि से थे, जिससे कपिल सिंह थापा को बचपन से ही राष्ट्रसेवा और सैन्य अनुशासन का पाठ मिला। एक ऐसे परिवार में जन्म लेना जहाँ सेना की सेवा एक परंपरा थी, यह स्वाभाविक था कि युवा कपिल भी सेना को अपना करियर चुनें।
उनकी लगन और मेहनत रंग लाई, और 30 जून, 1963 को उन्हें भारतीय सेना की प्रतिष्ठित जाट रेजीमेंट में कमीशन मिला। उनकी पोस्टिंग 3 जाट बटालियन में हुई, और यहीं से उनके वीरतापूर्ण सैन्य जीवन की शुरुआत हुई।
1965 का युद्ध: लाहौर सेक्टर में चुनौती

नियति ने उन्हें एक बड़ी चुनौती के लिए तैयार किया था— 1965 का भारत-पाक युद्ध। युद्ध के दौरान, 3 जाट बटालियन को लाहौर सेक्टर में तैनात किया गया था। इस सेक्टर में डोगराई का इलाका रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण था, जहाँ पाकिस्तानी सेना ने मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी।
ब्रिगेड की युद्ध योजना के अनुसार, डोगराई पर कब्ज़ा करना 3 जाट बटालियन की जिम्मेदारी थी। यह हमला एक सुनियोजित ऑपरेशन का हिस्सा था; सबसे पहले 13 पंजाब बटालियन को डोगराई के पूर्व में दुश्मन की मोर्चाबंदी को ध्वस्त करना था, जिसके बाद 3 जाट बटालियन को 21 सितंबर की रात को निर्णायक हमला करके डोगराई पर कब्ज़ा करना था।
डोगराई की लड़ाई: ‘डी’ कंपनी का निर्णायक धावा

बटालियन कमांडर ने डोगराई पर कब्जे के लिए अपनी हमलावर कंपनियों के लिए विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित किए। कैप्टन कपिल सिंह थापा की कमान वाली ‘डी’ कंपनी को डोगराई नगर क्षेत्र के उत्तर-पूर्व में एक महत्वपूर्ण पैठ (फुटहोल्ड) जमाने का आदेश मिला।
22 सितंबर को 0139 बजे, ‘डी’ कंपनी ने कूच लाइन को पार किया और लक्ष्य की ओर बढ़ना शुरू किया। हालाँकि, नहर के पूर्वी तट पर मोर्चा संभाले हुए दुश्मन की एक प्लाटून ने मीडियम मशीन गन (MMG) से भीषण गोलाबारी शुरू कर दी। यह अंधाधुंध और तेज गोलाबारी भारतीय सेना की प्रगति में एक बड़ी बाधा बन गई।
वीरता का चरम: ‘डेप्थ प्लाटून’ का नेतृत्व
जब कंपनी की प्रगति रुकने लगी, तो कैप्टन थापा ने वह असाधारण नेतृत्व दिखाया जिसके लिए उन्हें याद किया जाता है। उन्होंने तुरंत अपनी ‘डेप्थ प्लाटून’ को नेतृत्व दिया और दुश्मन के उस ठिकाने पर सीधा हमला बोल दिया जहाँ से लगातार गोलाबारी हो रही थी। यह ठिकाना एक सुरंग क्षेत्र के उस पार था, जो हमले को और भी खतरनाक बना रहा था।
कैप्टन थापा के नेतृत्व में प्लाटून ने दुश्मन के बंकरों में घुसकर सीधी और भयंकर मुठभेड़ शुरू कर दी।
“कैप्टन थापा ने स्वयं हथगोले तथा संगीनों से दुश्मन का मुकाबला किया।”
वह एक सच्चे योद्धा की तरह सबसे आगे लड़ रहे थे, दुश्मन के खिलाफ व्यक्तिगत रूप से लोहा ले रहे थे। उनकी निर्भीकता ने उनके सैनिकों में एक नई ऊर्जा भर दी। हालाँकि, यह संघर्ष अत्यंत भीषण था। बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक हताहत हुए, लेकिन कैप्टन थापा और उनकी प्लाटून अपने अदम्य साहस के बल पर अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल रही। उन्होंने दुश्मन की उस मजबूत मोर्चाबंदी को तोड़ दिया जो पूरे ऑपरेशन के लिए खतरा थी।
सर्वोच्च बलिदान और महावीर चक्र

इस भीषण युद्ध में, लक्ष्य हासिल करने के बावजूद, राष्ट्र ने अपना एक वीर पुत्र खो दिया। कप्तान थापा को अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया; उनके नेतृत्व ने डोगराई ऑपरेशन की सफलता में निर्णायक भूमिका निभाई।
राष्ट्र ने इस उत्कृष्ट वीरता, संकल्प और नेतृत्व को पहचाना। कैप्टन कपिल सिंह थापा को उनके सर्वोच्च बलिदान और अद्वितीय बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से अलंकृत किया गया।
कैप्टन थापा का बलिदान हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता और संप्रभुता की कीमत क्या होती है। वह न केवल जाट रेजीमेंट के लिए, बल्कि पूरी भारतीय सेना और राष्ट्र के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे। उनकी कहानी पीढ़ियों को यह सिखाती रहेगी कि मातृभूमि की रक्षा में कोई भी बलिदान बड़ा नहीं होता।
जय हिन्द !
कैप्टन कपिल सिंह थापा से जुड़े मुख्य तथ्य
| तथ्य | विवरण |
| नाम | कैप्टन कपिल सिंह थापा |
| जन्म | 02 नवंबर, 1937, पंडितवाड़ी, देहरादून |
| रेजीमेंट | जाट रेजीमेंट (3 जाट बटालियन) |
| युद्ध | 1965 का भारत-पाक युद्ध |
| ऑपरेशन | डोगराई की लड़ाई, लाहौर सेक्टर |
| पुरस्कार | महावीर चक्र (मरणोपरांत) |
| बलिदान | 22 सितंबर, 1965 |
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