भारत की माटी ने असंख्य वीरों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए न केवल अपने प्राणों की आहुति दी, बल्कि अपने साहस और कर्तव्यनिष्ठा से इतिहास के पन्नों को स्वर्णिम बना दिया। ऐसे ही एक वीर सपूत हैं सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, जिन्हें भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया। उनकी कहानी न केवल साहस और बलिदान की मिसाल है, बल्कि यह हर भारतीय को देशभक्ति और कर्तव्य के प्रति प्रेरित करती है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता, ब्रिगेडियर मूलराज खेत्रपाल, स्वयं भारतीय सेना के एक सम्मानित अधिकारी थे, जिन्होंने अपने बेटे में देशसेवा का जज्बा बचपन से ही भरा। अरुण के परिवार का सैन्य पृष्ठभूमि से गहरा नाता था, जिसने उनकी सोच और व्यक्तित्व को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अरुण की प्रारंभिक शिक्षा हिमाचल प्रदेश के प्रतिष्ठित लॉरेंस स्कूल, सनावर में हुई। यहाँ उन्होंने न केवल शैक्षिक उत्कृष्टता हासिल की, बल्कि अनुशासन, नेतृत्व और साहस जैसे गुणों को भी आत्मसात किया। स्कूल में उनके शिक्षकों और सहपाठियों के अनुसार, अरुण में असाधारण नेतृत्व क्षमता और दृढ़ संकल्प था। इसके बाद, उन्होंने नेशनल डिफेंस एकेडमी (NDA), खडकवासला में दाखिला लिया, जहाँ उन्होंने अपनी सैन्य प्रशिक्षण की शुरुआत की। NDA में उनकी प्रतिभा और समर्पण ने उन्हें अपने बैच में एक होनहार कैडेट के रूप में स्थापित किया।
NDA के बाद, अरुण ने इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA), देहरादून से अपनी सैन्य प्रशिक्षण को पूरा किया। 13 जून 1971 को, मात्र 20 वर्ष की आयु में, उन्हें 17वीं पूना हॉर्स रेजिमेंट में सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशन प्राप्त हुआ। उनकी नियुक्ति एक ऐसी रेजिमेंट में हुई, जो अपनी शौर्य गाथाओं के लिए जानी जाती थी।
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध: बस्सी का युद्ध

1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भारतीय सेना के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। इस युद्ध में अरुण खेत्रपाल ने अपने साहस और नेतृत्व से एक ऐसी मिसाल कायम की, जो आज भी सैन्य इतिहास में अमर है। उनकी वीरता की कहानी बस्सी, शकरगढ़ सेक्टर (पंजाब) में 16 दिसंबर 1971 को घटित हुई, जो बैटल ऑफ बस्सी के नाम से प्रसिद्ध है।
अरुण को उनकी यूनिट, 17 पूना हॉर्स, के साथ पश्चिमी मोर्चे पर तैनात किया गया था। उनका दायित्व था शकरगढ़ सेक्टर में दुश्मन की टैंक रेजिमेंट को रोकना। इस क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना ने भारी संख्या में टैंकों और सैनिकों को तैनात किया था, जिनका मुकाबला भारतीय सेना के लिए एक बड़ी चुनौती था।
16 दिसंबर को, जब युद्ध अपने चरम पर था, अरुण खेत्रपाल अपने फैमागुस्ता नामक टैंक के साथ मोर्चे पर डटे थे। दुश्मन की टैंक रेजिमेंट, जो पैटन टैंकों से लैस थी, ने भारतीय रक्षा पंक्ति पर तीव्र हमला किया। अरुण ने अपने टैंक दस्ते का नेतृत्व करते हुए न केवल दुश्मन के हमले को रोका, बल्कि उनके कई टैंकों को नष्ट भी किया।

विभिन्न सैन्य रिकॉर्ड्स और भारतीय सेना के आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार, अरुण खेत्रपाल ने अपने टैंक से 10 पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट किया। यह एक असाधारण उपलब्धि थी, क्योंकि दुश्मन की टैंकों की संख्या और तकनीकी क्षमता भारतीय टैंकों से कहीं अधिक थी।
अंतिम क्षण और बलिदान
लड़ाई के दौरान, अरुण का टैंक बार-बार दुश्मन के गोले से क्षतिग्रस्त हुआ। उनके टैंक में आग लग चुकी थी, और वे स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उनके कमांडिंग ऑफिसर, मेजर नत्थू सिंह, ने उन्हें टैंक छोड़कर पीछे हटने का आदेश दिया। लेकिन अरुण ने दृढ़ता से जवाब दिया:
“No Sir, I will not abandon my tank. My gun is still working, and I will fight till my last breath.”
यह वाक्य उनकी देशभक्ति, साहस और कर्तव्य के प्रति समर्पण का प्रतीक बन गया। उन्होंने अंतिम सांस तक युद्ध जारी रखा और दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया। अंततः, एक घातक हमले में उनका टैंक पूरी तरह नष्ट हो गया, और अरुण खेत्रपाल वीरगति को प्राप्त हुए। उस समय उनकी आयु केवल 21 वर्ष थी।
परमवीर चक्र और सम्मान

अरुण खेत्रपाल की अदम्य वीरता और बलिदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें परमवीर चक्र, भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान, से मरणोपरांत सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें 26 जनवरी 1972 को प्रदान किया गया। अरुण खेत्रपाल उन चुनिंदा वीरों में से हैं, जिन्हें इतनी कम उम्र में यह प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुआ।
परमवीर चक्र भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है, जो असाधारण वीरता और बलिदान के लिए दिया जाता है। 1947 से अब तक केवल 21 सैनिकों को यह सम्मान मिला है, जिनमें से 14 मरणोपरांत हैं। अरुण खेत्रपाल इस सूची में एक चमकता हुआ सितारा हैं।
व्यक्तिगत जीवन और प्रेरणा
अरुण खेत्रपाल न केवल एक सैनिक थे, बल्कि एक संवेदनशील और जिम्मेदार इंसान भी थे। उनके पत्रों और सहपाठियों के संस्मरणों से पता चलता है कि वे हँसमुख, दोस्ताना और अपने साथियों के बीच बेहद लोकप्रिय थे। उनकी सादगी और देश के प्रति समर्पण आज भी हर भारतीय को प्रेरित करता है।
उनके बलिदान ने न केवल उनके परिवार, बल्कि पूरे देश को गर्व का अनुभव कराया।
विरासत
अरुण खेत्रपाल की कहानी उनकी वीरता की गाथा नई पीढ़ी के सैनिकों को प्रेरित करती है। 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट में उनकी स्मृति को आज भी सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके सम्मान में खेत्रपाल पैरेड ग्राउंड और अन्य सैन्य स्थलों का नामकरण किया गया है।

भारतीय सेना ने अरुण खेत्रपाल की स्मृति में IMA, देहरादून में एक ऑडिटोरियम का नाम उनके नाम पर रखा है। इसके अलावा, उनके स्कूल, लॉरेंस स्कूल, सनावर, में भी उनकी स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है।
सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की कहानी केवल एक सैनिक की गाथा नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी प्रेरणा है जो हमें सिखाती है कि देश के लिए जीना और मरना कितना गौरवपूर्ण हो सकता है। उन्होंने अपने छोटे से जीवन में जो पराक्रम दिखाया, वह अनंत काल तक भारतीयों के दिलों में जीवित रहेगा। उनकी शहादत हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता और सम्मान की कीमत चुकाने के लिए साहस और बलिदान की आवश्यकता होती है।
आज, जब हम अरुण खेत्रपाल को याद करते हैं, तो हमारा सिर गर्व से ऊँचा होता है। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्ची देशभक्ति वह है, जो अपने कर्तव्यों को अपने जीवन से भी ऊपर रखती है।
जय हिंद!

