आजादी के बाद के भारत के इतिहास में कई ऐसे वीर योद्धा हुए हैं, जिनकी कहानियां सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इनमें से एक नाम है सिपाही अनुसूया प्रसाद का, जिन्होंने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपनी जान की बाजी लगाकर दुश्मन को करारा जवाब दिया। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। यह कहानी न सिर्फ उनकी बहादुरी की मिसाल है, बल्कि देशभक्ति की एक जीती-जागती तस्वीर भी। आइए, इस वीर सपूत की जिंदगी और शहादत को करीब से जानें।
एक साधारण गांव से सेना की पाठशाला तक

अनुसूया प्रसाद का जन्म 19 मई 1953 को उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से गांव नान्ना में हुआ था। उनके पिता श्री दयानंद एक साधारण किसान थे, जो कठिन परिश्रम से परिवार का पालन-पोषण करते थे। अनुसूया बचपन से ही अनुशासित और साहसी थे। जैसे ही उम्र हुई, उन्होंने देश सेवा का संकल्प लिया। 19 मई 1971 को वे 10 महार रेजिमेंट में भर्ती हो गए। मात्र 18 साल की उम्र में सेना की वर्दी पहनते ही वे एक जिम्मेदार सिपाही बन चुके थे।
उन दिनों भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव चरम पर था। पूर्वी मोर्चे पर बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई तेज हो रही थी। अनुसूया की बटालियन को शमशेरनगर-मौलवी बाजार क्षेत्र में तैनात किया गया, जहां वे 81 माउंटेन ब्रिगेड की अग्रिम टुकड़ी का हिस्सा बने। मौलवी बाजार एक सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जगह थी – दुश्मन ने वहां मजबूत सेना तैनात कर रखी थी। संकरी सुरंगें, किलेबंदी और घनी आबादी वाले इलाके ने इसे और भी दुर्गम बना दिया था।
8 दिसंबर की वो काली रात: जंग का आगाज

8 दिसंबर 1971 की रात को ब्रिगेड ने दुश्मन पर हमला बोल दिया। 10 महार को चाटलापुर टी फैक्ट्री पर कब्जा करने का जिम्मा सौंपा गया। लेकिन फैक्ट्री के मैनेजर के बंगले से दुश्मन की मशीन गनों की बौछार ने सब कुछ रुकवा दिया। गोलियां चारों तरफ बरस रही थीं, और आगे बढ़ना नामुमकिन लग रहा था। सैनिकों की जान पर बन आई थी।
ऐसे में एक साहसी फैसला लिया गया – दुश्मन की किलेबंदी के अंदर एक छोटी टुकड़ी भेजी जाए, जो भवन में आग लगाकर तोपखाने को नष्ट कर दे। खतरा इतना बड़ा था कि कोई तैयार न था। लेकिन अनुसूया प्रसाद ने बिना सोचे-समझे आगे बढ़े। “मैं जाऊंगा,” उन्होंने कहा। उनके हाथ में कुछ ग्रेनेड थे, और दिल में देश के लिए अटूट निष्ठा।
रेंगते हुए मौत के मुंह में: वीरता का चरम
अनुसूया ने जमीन पर लेटकर दुश्मन की ओर रेंगना शुरू कर दिया। रास्ता खतरनाक था – गोलियां सिर के ऊपर से सरक रही थीं। तभी दुश्मन की गोली ने उनके दोनों पैरों को छलनी कर दिया। दर्द असहनीय था, खून बह रहा था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। दांतों तले जीभ दबाकर वे आगे बढ़ते रहे।
अचानक उनकी नजर पड़ी – भवन के पीछे के एक कमरे में दुश्मन का गोला-बारूद का ढेर! वहां पहुंचना ही सब कुछ था। लेकिन तभी मशीन गन की फायरिंग शुरू हो गई। उनके कंधे और छाती पर गोलियां लगीं। घायल होकर भी वे रेंगते रहे। आखिरकार, कमरे तक पहुंचे। गंभीर चोटों से उनका शरीर लथपथ था, लेकिन आंखों में वो जज्बा बाकी था।
अंतिम सांसों में उन्होंने ग्रेनेड फेंक दिया। धमाका हुआ, आग भड़क उठी! पूरा भवन लपटों में लिपट गया। दुश्मन के सैनिक घबरा गए – वे भागने लगे। महार रेजिमेंट ने मौके का फायदा उठाया और फैक्ट्री पर कब्जा जमा लिया। उस आग में दुश्मन के 10 सैनिक जलकर मर गए। अनसूया की ये कुर्बानी ने पूरे मोर्चे का रुख मोड़ दिया।
दुर्भाग्य से, अनुसूया ज्यादा देर न टिक सके। वे वीरगति को प्राप्त हो गए, लेकिन उनकी शहादत ने दुश्मन को धूल चटा दी।
सम्मान और प्रेरणा: महावीर चक्र

अनुसूया प्रसाद की अदम्य साहस और त्याग के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा युद्ध सम्मान है, जो वीरता की पराकाष्ठा का प्रतीक है। आज भी सेना के जवान उनकी कहानी सुनकर प्रेरित होते हैं।
दोस्तों, अनुसूया जैसे शहीद हमें याद दिलाते हैं कि देश की रक्षा में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। एक साधारण सिपाही भी इतिहास रच सकता है। अगर यह कहानी आपको छू गई हो, तो कमेंट में अपनी राय जरूर शेयर करें।
जय हिंद! जय भारत!


1 comment
बहुत ही बढ़िया जानकारी