भारत माँ के सपूतों की गाथाएँ सदैव प्रेरणा का स्रोत रही हैं। उनमें से एक हैं नायक चैन सिंह, जिन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में अपनी जान की परवाह न करते हुए दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया। महावीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित इस वीर सैनिक की कहानी आज भी लाखों भारतीयों के दिलों में ज़िंदा है।जानिए नायक चैन सिंह का जन्म, उनकी भर्ती, युद्ध में वीरता और वह ऐतिहासिक क्षण जब उन्होंने 500 चीनी सैनिकों के सामने डटकर मुकाबला किया।
प्रारंभिक जीवन और सेना में भर्ती

नायक चैन सिंह का जन्म 19 अक्टूबर 1931को पंजाब के गुरदासपुर जिले के गांव भैनी, बांगर में हुआ था। उनके पिता श्री साधु राम एक साधारण किसान थे। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े चैन सिंह में बचपन से ही देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी।
मात्र 20 वर्ष की आयु में, 19 अक्टूबर 1951 को वे पंजाब रेजीमेंट में भर्ती हो गए। अपनी मेहनत, अनुशासन और नेतृत्व क्षमता के दम पर वे शीघ्र ही नायक के पद तक पहुँचे। पंजाब रेजीमेंट, जो अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्ध है, को चैन सिंह जैसे जांबाज़ सैनिकों पर गर्व था।
1962 भारत-चीन युद्ध: सांगले क्षेत्र की रणभूमि

1962 का भारत-चीन युद्ध भारतीय सेना के लिए एक कठिन परीक्षा थी। नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) के सांगले क्षेत्र में तैनात 9 पंजाब रेजीमेंट की एक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे नायक चैन सिंह। उनकी जिम्मेदारी थी नामखा चू नदी के उत्तर में स्थित सेंगजांग की महत्वपूर्ण चौकी तक कुमुक पहुँचाना।
9 अक्टूबर 1962 को उनकी प्लाटून सांगले से रवाना हुई। रात में एक और प्लाटून उनसे जा मिली। अब कुल 56 जवान थे, लेकिन संसाधन बेहद सीमित—केवल पाउच भर गोला-बारूद और मोर्चाबंदी के लिए कोई सामग्री नहीं। फिर भी, नायक चैन सिंह के नेतृत्व में जवानों का हौसला बुलंद था।
10 अक्टूबर: दुश्मन का जोरदार हमला

सुबह होते ही 500 चीनी सैनिकों ने चौकी के उत्तर और पूर्व से तोपों और मोर्टारों से गोलाबारी शुरू कर दी। जवाब में 9 पंजाब ने भी जवाबी कार्रवाई की। नायक चैन सिंह और उनके साथी डटकर मुकाबला करते रहे।
पहले हमले में चीनी सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा और वे पीछे हट गए। लेकिन शीघ्र ही उन्होंने चारों ओर से घेराबंदी कर और भी जोरदार हमला बोल दिया। चैन सिंह की टुकड़ी ने फिर से अडिग रहते हुए दुश्मन को भारी क्षति पहुँचाई।
घोर संकट और अंतिम बलिदान

तब आई वह घोर संकट की घड़ी—गोला-बारूद खत्म हो चुका था। उच्चाधिकारियों से पीछे हटने का आदेश मिला। लेकिन नायक चैन सिंह ने अपने साथियों को सुरक्षित निकालने का संकल्प लिया।
आवरण फायर देने के लिए उन्होंने खुद एक लाइट मशीन गन (LMG) उठाई। तभी दुश्मन की मशीन गन की गोलियों की बौछार ने उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया। फिर भी, वे लगातार फायरिंग करते रहे ताकि उनके जवान बिना खतरे के पीछे हट सकें।
अंतिम क्षणों में दुश्मन के एक तोप के गोले ने उनके सिर पर सीधा वार किया। 10 अक्टूबर 1962 को नायक चैन सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन उनके बलिदान ने पूरे सेक्शन को सुरक्षित वापसी का मौका दिया और दुश्मन को भारी हानि पहुँचाई।
सम्मान: महावीर चक्र (मरणोपरांत)

नायक चैन सिंह की असाधारण वीरता, नेतृत्व और बलिदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया—मरणोपरांत। यह भारत का दूसरा सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान है, जो केवल असाधारण साहस के लिए दिया जाता है।
> उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए साथियों को बचाया और दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया।
> आधिकारिक उद्धरण, महावीर चक्र
प्रेरणा का स्रोत: आज भी जिंदा है चैन सिंह की गाथा

नायक चैन सिंह की कहानी हमें सिखाती है कि सीमित संसाधनों में भी दृढ़ इच्छाशक्ति से असंभव को संभव किया जा सकता है। पंजाब रेजीमेंट के इस जांबाज़ ने 56 जवानों vs 500 दुश्मनों के असमान युद्ध में भी हार नहीं मानी।
आज जब हम भारतीय सेना की बहादुरी की बात करते हैं, तो नायक चैन सिंह का नाम स्वतः जुबान पर आता है। उनके गांव भैनी में उनकी स्मृति में स्मारक है, और पंजाब रेजीमेंट में उनकी वीरता की कहानियाँ नई पीढ़ी को प्रेरित करती हैं।
जय हिंद!
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