भारत की मिट्टी में जन्मे अनगिनत नायकों में से एक नाम है सूबेदार अजीत सिंह, जिन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपनी वीरता से इतिहास के पन्नों में जगह बनाई। उनकी कहानी साहस, बलिदान और देशभक्ति की ऐसी मिसाल है, जो हर भारतीय को गर्व से सिर उठाने को मजबूर करती है। आइए, उनकी ज़िंदगी की यात्रा को करीब से देखें, मानो आप उनके साथ उस रणभूमि में चल रहे हों।
जन्म और शुरुआती दिन: पंजाब का वो सिपाही

सूबेदार अजीत सिंह का जन्म 8 अप्रैल 1933 को पंजाब के जालंधर जिले के सोभना गांव में हुआ। उनके पिता, श्री उजागर सिंह, एक मेहनती किसान थे, जिन्होंने अपने बच्चों में अनुशासन और मेहनत का बीज बोया। सोभना गांव की मिट्टी, खेतों की हरियाली और वहां के लोगों का जज़्बा – ये सब अजीत सिंह की रगों में दौड़ता था। बचपन में वो अपने भाई-बहनों के साथ खेतों में दौड़ते, खेलते और मेहनत की ज़िंदगी जीते। उनके परिवार में सैन्य सेवा की परंपरा थी, और शायद यही वजह थी कि अजीत सिंह का मन भी सेना की ओर मुड़ा।
सेना में प्रवेश: सपनों को सलाम
23 मई 1952 को, 19 साल की उम्र में, अजीत सिंह सिख रेजिमेंट में भर्ती हुए। सिख रेजिमेंट – नाम ही काफी है, ये उन रेजिमेंट्स में से एक है जो अपनी बहादुरी और अनुशासन के लिए जानी जाती है। 4 सिख बटालियन में शामिल होकर उन्होंने कठिन प्रशिक्षण लिया। सालों की मेहनत ने उन्हें हवलदार से सूबेदार तक पहुंचाया। 1965 तक उनके पास 13 साल का अनुभव था, और वो एक ऐसे लीडर बन चुके थे जो अपने जवानों के लिए प्रेरणा थे।
1965 का युद्ध: बर्की का रणक्षेत्र

1965 का भारत-पाक युद्ध – ये वो जंग थी जिसने दोनों देशों को हिलाकर रख दिया। पंजाब सेक्टर में 4 सिख बटालियन को तैनात किया गया था, और उनका मिशन था बर्की गांव पर कब्ज़ा करना। बर्की, लाहौर के पास इछोगिल नहर के किनारे बसा एक रणनीतिक ठिकाना था। 6 सितंबर 1965 की रात, जब घड़ी ने 8 बजे का समय दिखाया, बटालियन ने हमला शुरू किया। दुश्मन की चौकियों को तोड़ते हुए वो बर्की से सिर्फ़ 380 मीटर दूर पहुंच गए।
लेकिन तभी रास्ते में एक रुकावट आई – दुश्मन की मीडियम मशीन गन (MMG)। ये तोप इतनी खतरनाक थी कि भारतीय सैनिकों की प्रगति रुक गई। गोलियां बरस रही थीं, और जवानों की जान पर बन आई थी। कमांडर ने देखा कि अगर इस तोप को खामोश न किया गया, तो मिशन नाकाम हो सकता है। यहीं पर सूबेदार अजीत सिंह को जिम्मेदारी दी गई – “इस तोप को खत्म करो।”

साहस की पराकाष्ठा: एक अकेला योद्धा
सूबेदार अजीत सिंह ने बिना पल गंवाए फैसला लिया। अकेले, हथगोले और बंदूक लिए, वो दुश्मन की ओर बढ़े। रात का अंधेरा, गोलियों की आवाज़, और सामने मौत का खतरा – लेकिन उनके कदम नहीं डगमगाए। वो उस ठिकाने तक पहुंचे जहां दुश्मन की MMG बरस रही थी। तभी एक गोली उनके सीने में लगी। खून बहने लगा, दर्द ने शायद उनके शरीर को जकड़ लिया, लेकिन उनका इरादा अडिग रहा।

वो रुके नहीं। ठिकाने के पास पहुंचकर उन्होंने एक छोटे से छेद से हथगोला अंदर फेंका। एक ज़ोरदार धमाका हुआ, और वो तोपखाना तबाह हो गया। इस एक कार्रवाई ने न सिर्फ़ मिशन को बचाया, बल्कि बाकी सैनिकों में जोश भर दिया। बर्की पर कब्ज़ा हो गया, लेकिन इस जंग में अजीत सिंह की जान चली गई। उनकी उम्र थी सिर्फ़ 32 साल।
सम्मान और विरासत: महावीर चक्र

अजीत सिंह की इस अनोखी वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया – ये भारत का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य सम्मान है। उनकी साइटेशन में लिखा गया कि उनके साहस और कर्तव्यनिष्ठा ने सैन्य परंपराओं की सबसे ऊंची मिसाल कायम की। बर्की की जंग आज भी सिख रेजिमेंट के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा है।
एक सिपाही का संदेश
2025 में, जब हम 1965 की जंग की 60वीं सालगिरह मना रहे हैं, अजीत सिंह की कहानी हमें सिखाती है कि असली वीरता डर को पीछे छोड़कर अपने कर्तव्य को चुनने में है। वो अकेले आगे बढ़े, ताकि उनके साथी सुरक्षित रहें। उनके बलिदान ने न सिर्फ़ बर्की को जीता, बल्कि हर भारतीय के दिल में देशभक्ति का जज़्बा जगाया।
अगर आप कभी जालंधर जाएं, तो सोभना गांव ज़रूर देखें। वहां की हवा में आज भी अजीत सिंह की गूंज है। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा हर इंसान में होना चाहिए। क्या आप भी किसी ऐसे हीरो की कहानी सुनना चाहेंगे? मुझे बताइए!
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