सिपाही पांडुरंग साळुंखे: महावीर चक्र विजेता का अमर बलिदान
भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा में अनगिनत वीरों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। आज हम बात करेंगे एक ऐसे ही अदम्य साहसी सैनिक की, जिन्होंने 1971 के भारत-पाक युद्ध में अपनी जान की परवाह न करते हुए दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। सिपाही पांडुरंग साळुंखे, जो मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित हुए।
प्रारंभिक जीवन और सेना में प्रवेश

सिपाही पांडुरंग साळुंखे का जन्म 1 मई 1950 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के छोटे से गांव मनीराजुरी में हुआ था। उनके पिता श्री बालकृष्ण साळुंखे एक साधारण किसान परिवार से थे, जहां देशभक्ति और मेहनत की भावना बचपन से ही घर कर गई थी। पांडुरंग जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही पूरी की और युवावस्था में देश सेवा का संकल्प लिया।
13 फरवरी 1969 को मात्र 19 वर्ष की आयु में वे भारतीय सेना की प्रसिद्ध 15 मराठा लाइट इंफैन्ट्री में भर्ती हो गए। मराठा रेजिमेंट की वीरता की गाथाएं तो जगप्रसिद्ध हैं, और पांडुरंग जी ने जल्द ही अपनी ट्रेनिंग में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर इस रेजिमेंट का हिस्सा बनने का गौरव हासिल किया। वे एक समर्पित सैनिक थे, जिनमें नेतृत्व, साहस और टीमवर्क की अद्भुत क्षमता थी। सेना में उनके साथी उन्हें उनकी निडरता और हंसमुख स्वभाव के लिए याद करते थे।
1971 का भारत-पाक युद्ध: पृष्ठभूमि

1971 का युद्ध भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जहां हमने न केवल पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी, बल्कि बांग्लादेश के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। युद्ध की शुरुआत 3 दिसंबर 1971 को हुई, जब पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमले किए। पश्चिमी मोर्चे पर लड़ाई बेहद उग्र थी। 15 मराठा लाइट इंफैन्ट्री को 96 इंफैन्ट्री ब्रिगेड के साथ जोड़ा गया, और उनकी जिम्मेदारी थी सीमा की रक्षा करना तथा खोई हुई चौकियों को पुनः हासिल करना।
उस रात पाकिस्तानी सेना ने बड़ी संख्या में फतेहपुर और बुर्ज सीमा चौकियों पर आक्रमण कर दिया। वहां तैनात सीमा सुरक्षा बल (BSF) के जवान बहादुरी से लड़े, लेकिन दुश्मन की भारी संख्या और आधुनिक हथियारों के सामने चौकियां उनके हाथ चली गईं। यह भारत के लिए एक चुनौती थी – खोई भूमि को वापस लेना आवश्यक था, नहीं तो पूरा मोर्चा खतरे में पड़ जाता।
जवाबी हमला: बुर्ज की लड़ाई
खोई चौकियों को वापस लेने के लिए 15 मराठा लाइट इंफैन्ट्री को तत्काल आदेश मिला। लगभग एक कंपनी strength के सैनिकों को, जिनमें BSF के 35 जवान भी शामिल थे, आर्मर्ड ट्रूप्स (टैंकों) की सहायता से दो दलों में बांट दिया गया। योजना थी – 6 दिसंबर 1971 को सुबह-सुबह धावा बोलना।
युद्ध का भयानक दृश्य
– दुश्मन की तैयारी: पाकिस्तानी सैनिक बंकरों में छिपे थे, जहां से वे मशीनगनों, रॉकेट लॉन्चर्स और ग्रेनेड्स से भारी गोलाबारी कर रहे थे।
– भारतीय सैनिकों का साहस: मराठा सैनिकों ने निकट युद्ध (close-quarters combat) में दुश्मन से भिड़ंत की। एक-एक बंकर को साफ करना पड़ रहा था।
– कई बार सैनिकों ने दुश्मन से हथियार छीन लिए।
– मात्र 1 मीटर की दूरी से बंकरों में हैंड ग्रेनेड्स फेंके गए।
– लड़ाई इतनी उग्र थी कि हवा में बारूद की गंध और चीखें गूंज रही थीं। भारतीय टैंक आगे बढ़ रहे थे, लेकिन दुश्मन की एंटी-टैंक गनें खतरा बनी हुई थीं।
पांडुरंग साळुंखे का निर्णायक क्षण

युद्ध के इस चरम क्षण में एक पाकिस्तानी रॉकेट लॉन्चर ने भारतीय टैंकों और पैदल सेना को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यह लॉन्चर अगर नहीं रोका जाता, तो पूरी कंपनी तबाह हो सकती थी। तभी सिपाही पांडुरंग साळुंखे ने अपनी जान की बाजी लगा दी।
– उनका साहसिक फैसला: बिना किसी हिचक के वे दुश्मन की ओर लपके।
– कार्रवाई: उन्होंने रॉकेट लॉन्चर के चालक पर हमला किया, उसे मार गिराया और लॉन्चर छीन लिया।
– बलिदान: इस दौरान दुश्मन की स्टेन गन से निकट दूरी से गोलीबारी हुई। पांडुरंग जी को छाती और पेट में कई गोलियां लगीं, और वे वीरगति को प्राप्त हो गए।
उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। रॉकेट लॉन्चर के खतरे के समाप्त होने से मराठा सैनिकों का मनोबल बढ़ा, और वे बुर्ज चौकी पर पुनः कब्जा करने में सफल रहे। इससे 96 इंफैन्ट्री ब्रिगेड की आगे की सफलता का मार्ग प्रशस्त हुआ, और पूरे मोर्चे पर भारत की जीत सुनिश्चित हुई।
महावीर चक्र: सर्वोच्च सम्मान

पांडुरंग साळुंखे की इस अद्वितीय वीरता को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से अलंकृत किया। महावीर चक्र युद्धकालीन सर्वोच्च वीरता पुरस्कारों में दूसरा स्थान रखता है (परमवीर चक्र के बाद)। उनकी Citation में लिखा है:
> “सिपाही पांडुरंग साळुंखे ने दुश्मन के रॉकेट लॉन्चर को नष्ट करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर असाधारण साहस दिखाया, जिससे अपनी यूनिट की सफलता सुनिश्चित हुई।”
यह सम्मान उनके परिवार को सौंपा गया, और आज भी महाराष्ट्र के सांगली जिले में उनकी स्मृति में आयोजन होते हैं।
विरासत और प्रेरणा
पांडुरंग साळुंखे मात्र 21 वर्ष के थे जब वे अमर हो गए। उनका बलिदान हमें सिखाता है:
– देशभक्ति की कोई उम्र नहीं होती।
– साहस छोटे-छोटे फैसलों में छिपा होता है।
– एक सैनिक का बलिदान पूरे राष्ट्र को मजबूत बनाता है।
आज 15 मराठा लाइट इंफैन्ट्री में उनकी कहानी नए सैनिकों को ट्रेनिंग का हिस्सा है। मनीराजुरी गांव में उनकी प्रतिमा स्थापित है, और हर साल 6 दिसंबर को विजय दिवस पर उन्हें याद किया जाता है।
| विवरण | जानकारी |
|---|---|
| जन्म | 1 मई 1950, मनीराजुरी, सांगली, महाराष्ट्र |
| पिता का नाम | श्री बालकृष्ण साळुंखे |
| सेना में भर्ती | 13 फरवरी 1969, 15 मराठा लाइट इंफैन्ट्री |
| युद्ध | 1971 भारत-पाक युद्ध, पश्चिमी मोर्चा |
| निर्णायक तारीख | 6 दिसंबर 1971 |
| बलिदान | बुर्ज चौकी पर रॉकेट लॉन्चर छीनते हुए |
| सम्मान | मरणोपरांत महावीर चक्र |
श्रद्धांजलि
सिपाही पांडुरंग साळुंखे जैसे वीरों के कारण आज हम सुरक्षित हैं। उनकी कहानी हर भारतीय को प्रेरित करती है कि जरूरत पड़ने पर अपना सब कुछ न्योछावर कर दें।
जय हिंद!
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