नमस्कार दोस्तों! आज जब हम 2025 में स्वतंत्र भारत की वीर गाथाओं को याद कर रहे हैं, तो कुछ नाम ऐसे हैं जो ठंडी हवाओं में भी आग की तरह जलते हैं। सिपाही अमर सिंह – 1948 के भारत-पाक युद्ध में, जब कश्मीर की ऊंची चोटियां दुश्मन की चालों से कांप रही थीं, इन्होंने अकेले ही मौत को ठेंगा दिखा दिया।
बर्फीले जोजी ला दर्रे पर, घायल होने के बावजूद दुश्मन की मशीनगनों को ललकारते हुए उन्होंने जो किया, वो न सिर्फ सैन्य इतिहास की किताबों में, बल्कि हर सिपाही के दिल में बसा है। महावीर चक्र से नवाजे गए ये योद्धा पंजाब के डोंगराय गांव की मिट्टी से निकले थे, और उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची बहादुरी दर्द भूलकर कर्तव्य निभाने में है।
शुरुआती जिंदगी: पंजाब की धरती से निकला एक साधारण सिपाही

30 अगस्त 1921 को, पटियाला जिले के छोटे से डोंगराय गांव में अमर सिंह का जन्म हुआ। वो दौर था जब भारत आजादी की दहलीज पर खड़ा था, और पंजाब की मिट्टी में सैन्य परंपरा की जड़ें गहरी थीं। उनके पिता, श्री नरेन सिंह, एक मेहनती किसान थे – घर में अनाज की खुशबू और मेहनत की कहानियां गूंजतीं। अमर सिंह बचपन से ही मजबूत कद-काठी के थे; गांव के खेलकूद में वो हमेशा आगे रहते। परिवार में भाई-बहनों की भरमार थी, लेकिन अमर का मन हमेशा सेना की वर्दी की ओर लगता।
उस समय पटियाला रियासत अपनी सेना के लिए जानी जाती थी – एक ऐसी ताकत जो ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़ी हो सकती थी। अमर सिंह ने सोचा, क्यों न इस जज्बे को अपनाया जाए? 20 साल की उम्र में, 9 जुलाई 1942 को, वो पटियाला (आरएस) इन्फैंट्री में भर्ती हो गए। ट्रेनिंग के दिनों से ही उनकी निशानेबाजी और धैर्य ने सबको हैरान कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो चुका था, लेकिन कश्मीर की आग अभी सुलग रही थी। 1947 में भारत-पाक बंटवारे के बाद, जब कश्मीर पर छाया संकट गहरा गया, अमर सिंह 1 पटियाला रेजिमेंट में शामिल हो गए। वो सिपाही थे, लेकिन दिल में एक कमांडर का जज्बा था।
1948 का युद्ध: कश्मीर की चोटियों पर छिड़ी जंग-ए-आजादी

1947-48 का भारत-पाक युद्ध – ये वो जंग थी जिसने कश्मीर को दो टुकड़ों में बांट दिया। पाकिस्तानी कबाइलियों ने श्रीनगर पर हमला बोला, महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी, और भारतीय सेना ने हवाई जहाजों से लाल टोपी पहनकर कूद पड़े। लेकिन उत्तर का मोर्चा, खासकर ड्रास और जोजी ला, सबसे चुनौतीपूर्ण था। ऊंचाई 11,000 फीट से ज्यादा, बर्फीली हवाएं, और दुश्मन की चालाकियां।
मई 1948
मई 1948 में, 5 कश्मीर इन्फैंट्री की यूनिट्स ड्रास की कमजोर रक्षा संभाल रही थीं। 1 पटियाला को सोनमर्ग से ड्रास तक राज्य की पैदल सेना को राहत देने का आदेश मिला। लेकिन जून की शुरुआत में ही दुश्मन ने ड्रास पर कब्जा कर लिया। अब 1 पटियाला ने जोजी ला दर्रे पर चौकियां सैट कीं – वो दर्रा जो श्रीनगर को लेह से जोड़ता है, और दुश्मन की नजरों में चढ़ा हुआ था। पूरे जून में छिटपुट हमले होते रहे, लेकिन 18 जून को वो तूफान आया जिसने इतिहास बदल दिया।
सुबह की धुंध और हिमपात की आड़ में, ठीक 6:10 बजे, दुश्मन ने हमला बोल दिया। तीन मीडियम मशीन गन, दो ब्राउनिंग, और पांच लाइट मशीन गन – सब भारतीय पिकेट पर बरस पड़े। अमर सिंह जोजी ला की एक प्लाटून पिकेट पर लाइट मशीन गन नंबर 1 पर तैनात थे। गोलियां चारों तरफ से, पहाड़ी से नीचे उतरते दुश्मन सैनिक। पिकेट का एक-तिहाई हिस्सा हताहत हो गया। अमर सिंह को सिर में गहरी चोट लगी – वो अचेत होकर गिर पड़े। उनका सहायक सिपाही भी घायल, बांह टूट गई।
बहादुरी की मिसाल: बर्फ पर बहते खून के बीच अटल इरादा

लेकिन अमर सिंह रुके नहीं। 7:00 से 8:00 बजे के बीच दुश्मन ने दो और बार पिकेट को रौंदने की कोशिश की। होश आने पर, वो उठे – सिर से खून बह रहा था, लेकिन आंखों में आग। लगभग 250 मीटर दूर से उन्होंने दुश्मन पर गोलियां बरसाईं। मशीन गन की बौछार से दुश्मन रुक गया, पीछे हटने को मजबूर। तोपों की गोलाबारी, दुश्मन के चीखने-चिल्लाने के बीच, अमर सिंह ने धैर्य बनाए रखा।
कल्पना कीजिए – बर्फीली चोटी पर, अकेले, घायल शरीर के साथ। सहायक ने इवैक्यूएशन की सलाह दी, लेकिन अमर सिंह ने कहा, “नहीं, मिशन पहले।” उनकी गोलीबारी ने न सिर्फ पिकेट बचाया, बल्कि बाकी सैनिकों को समय दिया। दुश्मन को भारी नुकसान हुआ, और जोजी ला पर भारतीय झंडा लहराता रहा। लेकिन इस जंग में अमर सिंह शहीद हो गए – उम्र महज 26 साल। उनकी साहसिकता ने पूरे मोर्चे को प्रेरित किया।
महावीर चक्र

अमर सिंह की इस अदम्य वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया। भारत का दूसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार, जो 1948 में ही शुरू हुआ था। उनकी साइटेशन में लिखा: “असाधारण साहस और दुश्मन के सामने अटल रहना।” जोजी ला की वो जंग ‘ब्लड इन द स्नो’ के नाम से मशहूर हुई – बर्फ पर बहते खून की कहानी।
विरासत: आज भी जोजी ला पर गूंजती आवाज

आज, 2025 में जब कश्मीर अभी भी चुनौतियों से जूझ रहा है, अमर सिंह की कहानी नई पीढ़ी को सिखाती है कि बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता। पटियाला के डोंगराय में उनका नाम गांव की शान है; परिवार की आने वाली पीढ़ियां उनकी यादें संजोए हैं। सिख रेजिमेंट और पटियाला इन्फैंट्री में नवसिपाहियों को उनकी मिसाल दी जाती।
दोस्तों, अमर सिंह सिखाते हैं कि जिंदगी छोटी हो, लेकिन जज्बा अमर। अगर आप कश्मीर घूमें, तो जोजी ला जरूर जाएं – वहां हवा में उनकी गूंज है। क्या आप ऐसी कोई और वीर गाथा सुनना चाहेंगे? कमेंट्स में बताएं।
जय हिंद!
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