सहायक कमांडेंट राम कृष्ण वधवा: अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति,राजा माहतम की ऐतिहासिक विजय
भारतीय सैन्य इतिहास के पन्नों में 1971 का भारत-पाक युद्ध स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। यह वह युद्ध था जिसने न केवल विश्व का भूगोल बदला, बल्कि वीरता की ऐसी कहानियां भी दीं, जो आज भी हमारी धमनियों में राष्ट्रभक्ति का संचार करती हैं। जब हम इस युद्ध की बात करते हैं, तो अक्सर नियमित सेना (Indian Army) की चर्चा होती है, लेकिन सीमा सुरक्षा बल (BSF) के प्रहरियों ने जो शौर्य इस युद्ध में दिखाया, वह अद्वितीय है।
आज हम एक ऐसे ही महानायक, सहायक कमांडेंट राम कृष्ण वधवा की कहानी जानेंगे, जिन्होंने पश्चिमी मोर्चे पर ‘राजा माहतम’ की चौकी को वापस पाने और उसकी रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र (Maha Vir Chakra) से सम्मानित किया गया।

एक योद्धा का जन्म और प्रारंभिक सफर
राम कृष्ण वधवा का जन्म 10 नवम्बर, 1940 को वीरों की धरती पंजाब के जालंधर में हुआ था। उनके पिता श्री डी.सी. वधवा ने उन्हें बचपन से ही अनुशासन और देशप्रेम के संस्कार दिए थे। युवा राम कृष्ण का सपना वर्दी पहनकर देश की सेवा करना था। यह सपना 02 फरवरी, 1964 को पूरा हुआ जब उन्हें ‘रेजीमेंट ऑफ आर्टिलरी’ (तोपखाना) में कमीशन मिला।
सेना में अपनी सेवाएं देने के बाद, वर्दी के प्रति उनका मोह कम नहीं हुआ। 1968 में सेना से सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद, वे सीमा सुरक्षा बल (BSF) में शामिल हो गए। नियति ने उन्हें देश की रक्षा की पहली पंक्ति यानी BSF में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए चुना था।
1971 का युद्ध और राजा माहतम की चुनौती
दिसंबर 1971 में जब युद्ध का बिगुल बजा, तब सहायक कमांडेंट वधवा की यूनिट पश्चिमी मोर्चे पर तैनात थी। पंजाब के फिरोजपुर सेक्टर में सतलुज नदी के पास स्थित राजा माहतम (Raja Mahtam) क्षेत्र रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था।
युद्ध की शुरुआत में ही भारत को एक बड़ा झटका लगा। 05 दिसम्बर, 1971 को दुश्मन ने भारी संख्याबल और गोलाबारी के दम पर BSF की राजा माहतम पिकेट (चौकी) पर कब्जा कर लिया। यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से संवेदनशील था, इसलिए इसे किसी भी कीमत पर वापस लेना अनिवार्य था। यह “असंभव” सा दिखने वाला कार्य सहायक कमांडेंट वधवा को सौंपा गया।
5 दिसम्बर: विजय का शंखनाद
दुश्मन ने चौकी पर कब्जा करने के बाद वहां अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली थी। उन्होंने पिकेट के चारों ओर मशीन गन पोस्ट बना ली थीं और संख्या में वे भारतीय टुकड़ी से कई गुना अधिक थे।
लेकिन वधवा हार मानने वालों में से नहीं थे। 5 दिसम्बर को उन्होंने अपनी दो प्लाटूनों के साथ दुश्मन पर धावा बोल दिया। दुश्मन ने उन पर मशीन गनों से गोलियों की बौछार कर दी। स्थिति यह थी कि आगे बढ़ने का मतलब था सीधे मौत के मुंह में जाना, क्योंकि रास्ता बारूदी सुरंगों (Minefields) से भरा था।
“वधवा किसी प्रकार की असफलता के लिए तैयार नहीं थे।”
अपनी जान की परवाह किए बिना, वधवा ने नेतृत्व की एक नई मिसाल कायम की। वे खुद सबसे आगे रहे और अपने जवानों को बारूदी सुरंगों वाले क्षेत्र से सुरक्षित निकालते हुए दुश्मन के बेहद करीब ले गए। अपने कमांडर को मौत की आंखों में आंखें डालते देख, जवानों का खून खौल उठा। उन्होंने दुश्मन पर भीषण आक्रमण किया। संख्या में कम होने के बावजूद, वधवा के नेतृत्व में BSF ने दुश्मन को खदेड़ दिया और राजा माहतम चौकी पर पुनः तिरंगा लहरा दिया।
10 दिसम्बर: सर्वोच्च बलिदान

पराजित शत्रु अपमान की आग में जल रहा था। चौकी वापस पाने के लिए दुश्मन ने 10 दिसम्बर को तोपखाने और मोर्टार की भीषण गोलाबारी की आड़ में एक विशाल जवाबी हमला (Counter-attack) किया।
इस समय वधवा ने जो धैर्य और साहस दिखाया, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था। भारी बमबारी के बीच, जब सिर उठाना भी मुश्किल था, वधवा एक बंकर में सुरक्षित बैठने के बजाय बाहर निकल आए। वे एक खाई (Trench) से दूसरी खाई में दौड़-दौड़कर अपने साथियों का हौसला बढ़ाते रहे और उन्हें दुश्मन को मुहंतोड़ जवाब देने के लिए प्रेरित करते रहे।
उनकी उपस्थिति मात्र से ही घायल सैनिकों में भी लड़ने की शक्ति आ गई। BSF के जवानों ने दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया और उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। लेकिन, इसी दौरान अपने साथियों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए, वधवा दुश्मन की गोलाबारी की चपेट में आ गए। उन्हें घातक चोटें आईं और वे रणभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुए।
मरणोपरांत महावीर चक्र

सहायक कमांडेंट राम कृष्ण वधवा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनके नेतृत्व के कारण ही राजा माहतम की वह महत्वपूर्ण चौकी भारत के कब्जे में रही। उनके अदम्य साहस, असाधारण नेतृत्व और कर्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत महावीर चक्र से अलंकृत किया गया।
राम कृष्ण वधवा की कहानी हमें याद दिलाती है कि देश की सीमाएं कंक्रीट की दीवारों से नहीं, बल्कि ऐसे वीरों के फौलादी इरादों से सुरक्षित रहती हैं। उनका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा का एक अनंत स्रोत है।
जय हिन्द!
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