मेजर अनूप सिंह गहलौत
भारत के सैन्य इतिहास में कुछ ऐसे वीर सपूतों के नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखे गए हैं, जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। मेजर अनूप सिंह गहलौत उनमें से एक हैं, जिन्हें 1971 के भारत-पाक युद्ध में उनके अदम्य साहस और नेतृत्व के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। यह ब्लॉग मेजर गहलौत के जीवन, उनकी वीरता और उस युद्ध की कहानी को समर्पित है, जिसने उन्हें अमर बना दिया।

मेजर अनूप सिंह गहलौत का प्रारंभिक जीवन
मेजर अनूप सिंह गहलौत का जन्म 19 सितंबर, 1940 को दिल्ली के नांगलोई गांव में हुआ था। उनके पिता, लेफ्टिनेंट कर्नल दलेल सिंह, स्वयं एक सैन्य अधिकारी थे, जिनके आदर्शों ने अनूप को देश सेवा के लिए प्रेरित किया। अनूप ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद सैन्य जीवन को चुना और 11 दिसंबर, 1962 को डोगरा रेजीमेंट में कमीशन प्राप्त किया। उनकी मेहनत, अनुशासन और देशभक्ति ने उन्हें जल्द ही एक कुशल और सम्मानित अधिकारी बना दिया।
1971 का भारत-पाक युद्ध और मेजर गहलौत की भूमिका
1971 का भारत-पाक युद्ध भारत के सैन्य इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने बांग्लादेश के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। इस युद्ध में मेजर अनूप सिंह गहलौत 3 डोगरा बटालियन के साथ पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के लवसम क्षेत्र में तैनात थे। उनकी बटालियन को एक महत्वपूर्ण और जोखिम भरा कार्य सौंपा गया था—छौड़ाग्राम-लवसम मार्ग पर दुश्मन के क्षेत्र में घुसकर सड़क अवरोध स्थापित करना। यह कार्य अत्यंत गोपनीय और त्वरित गति से करना था, ताकि दुश्मन को संभलने का मौका न मिले।
सड़क अवरोध का निर्माण
मेजर गहलौत के नेतृत्व में “ए” कंपनी ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को बखूबी अंजाम दिया। 4 दिसंबर, 1971 की सुबह 9:30 बजे तक, उनकी टीम ने दुश्मन के इलाके में सड़क अवरोध स्थापित कर लिया। यह कार्य इतनी गोपनीयता और दक्षता के साथ किया गया कि दुश्मन को इसकी भनक तक नहीं लगी। यह मेजर गहलौत की रणनीतिक सूझबूझ और नेतृत्व का एक शानदार उदाहरण था।
युद्ध का निर्णायक मोड़
5 दिसंबर, 1971 को मेजर गहलौत की “ए” कंपनी और “डी” कंपनी ने मिलकर दुश्मन की दो कंपनियों को घेर लिया। डोगरा सैनिकों ने दुश्मन को आत्मसमर्पण करने का मौका दिया, लेकिन दुश्मन ने युद्ध जारी रखने का फैसला किया। इसके जवाब में मेजर गहलौत ने अपनी प्लाटून के साथ दुश्मन की पोजीशन पर साहसिक हमला बोला। इस हमले में उनकी वीरता और नेतृत्व ने डोगरा सैनिकों का मनोबल बढ़ाया, और एक जोरदार मुठभेड़ शुरू हुई।
अप्रत्याशित हमला और मेजर गहलौत की वीरता

युद्ध के बीच में, दुश्मन की एक कंपनी ने अप्रत्याशित दिशा से मेजर गहलौत की प्लाटून पर हमला कर दिया। यह हमला इतना अचानक था कि कोई भी कमजोर दिल वाला कमांडर घबरा सकता था। लेकिन मेजर गहलौत ने असाधारण संयम और साहस का परिचय दिया। उन्होंने तुरंत अपनी प्लाटून को संगठित किया और दुश्मन का डटकर मुकाबला किया।
इस मुठभेड़ के दौरान मेजर गहलौत को गंभीर चोटें आईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। घायल होने के बावजूद वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे और दुश्मन के हमले को विफल करने में सफल रहे। उनकी इस वीरता ने न केवल उनकी प्लाटून को बचाया, बल्कि युद्ध के परिणाम को भी प्रभावित किया। हालांकि, इस लड़ाई में मेजर गहलौत और उनके कुछ बहादुर साथियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
मरणोपरांत महावीर चक्र

मेजर अनूप सिंह गहलौत की इस असाधारण वीरता, नेतृत्व और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य सम्मान है, जो युद्ध में अदम्य साहस और शत्रु के सामने वीरता के लिए प्रदान किया जाता है। मेजर गहलौत की कहानी आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
मेजर गहलौत का योगदान और उनकी विरासत

मेजर अनूप सिंह गहलौत की कहानी केवल एक सैनिक की वीरता की कहानी नहीं है, बल्कि यह देशभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और बलिदान की भावना का प्रतीक है। उनकी नेतृत्व क्षमता और युद्ध के मैदान में साहस ने न केवल 1971 के युद्ध में भारत की जीत में योगदान दिया, बल्कि डोगरा रेजीमेंट के गौरव को भी बढ़ाया।
आज भी, मेजर गहलौत की कहानी भारतीय सेना के युवा सैनिकों और नागरिकों को प्रेरित करती है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची वीरता न केवल युद्ध के मैदान में, बल्कि कठिन परिस्थितियों में भी संयम और साहस के साथ अपने कर्तव्य को निभाने में निहित है।
मेजर अनूप सिंह गहलौत भारत के उन अनगिनत नायकों में से एक हैं, जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। 1971 के युद्ध में उनकी वीरता और बलिदान ने न केवल युद्ध के परिणाम को प्रभावित किया, बल्कि भारतीय सेना के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी। मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित मेजर गहलौत की कहानी हमें गर्व और प्रेरणा से भर देती है।
उनके बलिदान को याद करते हुए, हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने देश के लिए उनके योगदान को कभी नहीं भूलेंगे और उनके दिखाए मार्ग पर चलकर देश की सेवा में योगदान देंगे।
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