दीवान रंजीत राय: स्वतंत्र भारत के पहले महावीर चक्र विजेता की अमर वीर गाथा
कश्मीर की बर्फीली वादियों में, जब आजादी की खुशियां अभी ताजा थीं, तभी एक ऐसी जंग छिड़ गई जो भारत के टुकड़े करने की साजिश का हिस्सा थी। 1947 का वो अक्टूबर का महीना, जब पाकिस्तानी कबायली लश्कर श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे, तब एक योद्धा ने अपनी जान की बाजी लगाकर इतिहास रच दिया। वो थे लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय। महावीर चक्र से नवाजे गए ये वीर सैनिक स्वतंत्र भारत के पहले ऐसे अधिकारी बने, जिन्हें ये सम्मान मरणोपरांत मिला। उनकी कहानी न सिर्फ सैन्य इतिहास की किताबों में, बल्कि हर भारतीय के दिल में बसती है – एक ऐसी प्रेरणा जो बताती है कि देश की रक्षा के लिए जान देना ही असली वीरता है।

दीवान रंजीत राय का प्रारंभिक जीवन और सैन्य सफर
दीवान रंजीत राय का जन्म 6 फरवरी 1913 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में एक प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। बचपन शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में बीता, जहां से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। 1935 में, वो इंडियन मिलिट्री अकादमी (IMA), देहरादून के पहले कोर्स के छात्र बने और 1 फरवरी 1935 को कमीशन प्राप्त किया। मात्र 22 साल की उम्र में ब्रिटिश आर्मी रेजिमेंट के साथ अटैचमेंट के बाद, वो 24 फरवरी 1936 को 11 सिख रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में पोस्ट हो गए।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उनकी बहादुरी ने उन्हें एक्टिंग मेजर के पद तक पहुंचा दिया। 1947 तक, वो 1 सिख रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर बन चुके थे। उस वक्त वो गुड़गांव में शरणार्थियों की व्यवस्था में व्यस्त थे, लेकिन कश्मीर पर आक्रमण की खबर ने सब बदल दिया। रंजीत राय को अमेरिका में मिलिट्री अटैची के पद पर जाने का चयन हो चुका था, लेकिन देश की पुकार ने उन्हें कश्मीर बुला लिया। उनकी जिंदगी का ये टर्निंग पॉइंट था – एक ऐसा फैसला जो न सिर्फ कश्मीर, बल्कि पूरे भारत को बचा गया।
1947 कश्मीर युद्ध: जब रंजीत राय ने श्रीनगर को बचाया

1947 में भारत-पाक युद्ध का आगाज कश्मीर से हुआ। 22 अक्टूबर को पाकिस्तानी कबायली लश्कर, मेजर जनरल अकबर खान (कोड नेम ‘जनरल तारिक’) के नेतृत्व में, मुजफ्फराबाद पर कब्जा कर बारामूला की ओर बढ़े। श्रीनगर एयरफील्ड पर कब्जा हो जाता, तो कश्मीर भारत से कट जाता। ऐसे में, 27 अक्टूबर 1947 को लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय अपनी C और D कंपनी के साथ दिल्ली से IAF डकोटा विमानों में सवार होकर श्रीनगर पहुंचे। सुबह 9:30 बजे लैंडिंग के तुरंत बाद, उन्होंने स्थिति का जायजा लिया और एक्शन में कूद पड़े।
बारामूला की रक्षा: वीरता का चरम

दीवान रंजीत राय ने तुरंत C कंपनी को कैप्टन कमलजीत सिंह के नेतृत्व में बारामूला भेजा, जबकि D कंपनी को मेजर हरवंत सिंह ने श्रीनगर में फ्लैग मार्च करवाया ताकि जनता का भरोसा बहाल हो। खुद एयरफील्ड पर रहकर बाकी कंपनियों का इंतजार करते हुए, रंजीत राय ने रेकी की। लेकिन संचार उपकरण वाला विमान जम्मू में क्रैश हो गया, जिससे संपर्क टूट गया।
28 अक्टूबर की सुबह, जब बाकी फोर्स न पहुंची, तो दीवान रंजीत राय माइल 32 (बारामूला से कुछ मील पहले) पर अपनी टुकड़ी के पास पहुंचे। मात्र 140-150 सैनिकों के साथ हजारों कबायलियों का सामना करना था, जो हेवी मशीनगन्स और 3-इंच मोर्टार से लैस थे। दुश्मन ने 11:30 बजे हमला बोला, लेकिन दीवान रंजीत राय के नेतृत्व में सैनिकों ने उसे खदेड़ दिया। दुश्मन ने फ्लैंकिंग की कोशिश की, लेकिन रंजीत राय ने सैनिकों को प्रेरित किया: “सद्दे जीवन तों वड्डा देश है। असि पहलां मरांगे, पर कश्मीर ना दींदी।” (देश हमारी जिंदगी से बड़ा है। हम पहले मरेंगे, लेकिन कश्मीर नहीं देंगे।)
जब स्थिति बिगड़ी, तो उन्होंने विदड्रॉअल का फैसला लिया। लेकिन रास्ता कट चुका था। दुश्मन की गोलीबारी में रंजीत राय को छाती में गोली लगी। वो गिरे, लेकिन अंतिम सांस तक सैनिकों को बचाते रहे। उनकी शहादत ने दुश्मन को कन्फ्यूज कर दिया – उन्हें लगा बड़ा फोर्स आ रहा है। ये 48 घंटों का पॉज भारतीय सेना को रिनफोर्समेंट भेजने का मौका दे गया, और श्रीनगर बच गया।
महावीर चक्र: सम्मान

रंजीत रंजीत राय को मरणोपरांत महावीर चक्र मिला, जो भारत का दूसरा सबसे बड़ा युद्धकालीन सम्मान है। 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस पर ये घोषित हुआ। आधिकारिक उद्धरण में लिखा है: “लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय ने श्रीनगर और उसके एयरफील्ड को बचाने के लिए व्यक्तिगत खतरे की परवाह न करते हुए रेकी और ऑपरेशंस का नेतृत्व किया। उनकी निर्भीकता और प्रेरणादायक लीडरशिप ने दुश्मन को दूर रोक दिया, जिससे निर्णायक जीत संभव हुई।” वो स्वतंत्र भारत के पहले MVC विजेता बने।
परिवार और विरासत: पांच पीढ़ियों का सैन्य परंपरा
रंजीत राय की पत्नी शीला राय और बेटा अरुणजीत राय उनके पीछे रह गए। अरुणजीत को मिर्गी जैसी बीमारी थी, और परिवार को पेंशन व मेडिकल हेल्प के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। लेकिन परिवार की सैन्य परंपरा आज भी जिंदा है। नाती मेजर (रिटायर्ड) शिवजीत एस शेरगिल आर्मर्ड कोर में रहे, और परपोते फरीद शेरगिल उसी रेजिमेंट में शामिल होने को तैयार हैं – पांचवीं पीढ़ी।
उनकी याद में चंडीगढ़ वॉर मेमोरियल पर नाम दर्ज है, जिसके लिए परिवार ने सालों संघर्ष किया। सिख रेजिमेंट में उनकी कहानी ट्रेनिंग का हिस्सा है, और हर साल 27 अक्टूबर को शौर्य दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
रंजीत राय की अनसुनी बातें
-पहली उड़ान: 27 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर पहुंचने वाली पहली भारतीय फोर्स के कमांडर थे रंजीत राय।
-WW2 हीरो: द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा फ्रंट पर लड़े, जहां उनकी बहादुरी ने जल्दी प्रमोशन दिलाया।
– उम्र: शहादत के समय मात्र 34 साल के थे, लेकिन उनकी विरासत अनंतकाल तक जिएगी।
– प्रभाव: उनकी शहादत ने न सिर्फ श्रीनगर बचाया, बल्कि कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा।
वीरता की लौ जो कभी बुझेगी नहीं
दीवान रंजीत राय की कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा सैनिक वो है जो फ्रंट पर खड़ा होकर देश को बचाए। आज जब हम कश्मीर की शांति देखते हैं, तो वो उनकी कुर्बानी का नतीजा है। अगर आप भी उनकी तरह देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत हैं, तो कमेंट में अपनी राय शेयर करें।
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