1962 के भारत-चीन संघर्ष को भारतीय इतिहास में एक ऐसे अध्याय के रूप में याद किया जाता है, जहाँ विषम परिस्थितियों के बावजूद हमारे सैनिकों ने अदम्य साहस और अतुलनीय बलिदान का प्रदर्शन किया। ऐसे ही एक असाधारण वीर थे जमादार इशी तुनदुप, जिन्हें उनकी सर्वोच्च कर्तव्यनिष्ठा और वीरता के लिए मरणोपरांत देश के दूसरे सबसे बड़े युद्धकालीन वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से अलंकृत किया गया।
एक वीर का जन्म

जमादार इशी तुनदुप का जन्म 31 मार्च, 1910 को लेह, जम्मू और कश्मीर में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री सी. पालजोर था। यह वह धरती है जहाँ की हवाओं में देशभक्ति और कठिन जीवन का संघर्ष घुला हुआ है। इसी पृष्ठभूमि में पले-बढ़े तुनदुप ने 18 जून, 1948 को भारतीय सेना की प्रतिष्ठित जम्मू और कश्मीर मिलिशिया में कदम रखा। सेना में उनकी भर्ती एक ऐसे समय हुई जब देश विभाजन की पीड़ा और नए-नए संघर्षों से गुजर रहा था, जिसने उनके भीतर देश सेवा के संकल्प को और मजबूत किया।
छँगला चौकी पर अंतिम युद्ध

वह वर्ष 1962 था, जब भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया। जमादार इशी तुनदुप उस समय 7 जम्मू और कश्मीर मिलिशिया के साथ लद्दाख सेक्टर में तैनात थे, जो भारत के सबसे दुर्गम और ठंडे क्षेत्रों में से एक है। उन्हें छँगला में एक महत्वपूर्ण सुरक्षा चौकी की कमान सौंपी गई थी, जिसका सामरिक महत्व बहुत अधिक था।
27 अक्टूबर की सुबह, चीनी सेना ने इस चौकी पर अचानक और भारी गोलाबारी शुरू कर दी। यह एक स्पष्ट संकेत था कि दुश्मन पूरी ताकत से हमला करने वाला है। गोलाबारी के बाद, चीनी सैनिकों ने बड़ी संख्या में चौकी पर धावा बोल दिया।
असाधारण नेतृत्व और बलिदान

जमादार इशी तुनदुप ने शत्रु के विशाल संख्या बल और भारी हथियारों की परवाह न करते हुए, अपने सैनिकों का अभूतपूर्व नेतृत्व किया। उन्होंने अपने साथियों में ऐसा साहस भरा कि चौकी के सैनिक अंत समय तक डटकर लड़ते रहे। जमादार इशी तुनदुप ने अपनी चौकी को ढाल बनाकर, दुश्मन के हर हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया।
यह लड़ाई केवल हथियारों की नहीं थी, यह युद्ध था कर्तव्य और बलिदान के बीच। जमादार इशी तुनदुप और उनके सैनिकों ने बहादुरी की ऐसी मिसाल पेश की कि चौकी पर कब्जा करने के लिए चीनी हमलावरों को हर इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ा। दुश्मन की संख्या अधिक थी, और अंततः चीनी हमलावरों ने चौकी को रौंद डाला। मगर, चीनी दुश्मन चौकी पर कब्जा तभी कर सका, जब स्वयं जमादार इशी तुनदुप लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
उन्होंने अंतिम साँस तक अपनी चौकी नहीं छोड़ी और यह सुनिश्चित किया कि दुश्मन को भारी कीमत चुकानी पड़े। उनका बलिदान दिखाता है कि एक सैनिक के लिए उसका कर्तव्य उसके व्यक्तिगत जीवन से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है।
राष्ट्र का सर्वोच्च सम्मान – महावीर चक्र

जमादार इशी तुनदुप का यह सर्वोच्च बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनके उच्च कोटि के नेतृत्व, अदम्य साहस और कर्तव्यनिष्ठा को राष्ट्र ने नमन किया। उनके इस असाधारण शौर्य के लिए, उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से अंलकृत किया गया। यह सम्मान न केवल उनकी वीरता को रेखांकित करता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह याद दिलाता है कि जब देश की बात आती है, तो भारत के वीर जवान किसी भी कीमत पर पीछे नहीं हटते।
जमादार इशी तुनदुप आज भी भारतीय सेना के इतिहास में एक प्रेरणादायक नाम हैं। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा नायक वह है जो अपने देश की रक्षा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।
जय हिन्द !
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