कैप्टन लक्ष्मी सहगल
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कुछ नाम ऐसे हैं, जो समय की धूल में कभी धुंधले नहीं पड़ते। कैप्टन लक्ष्मी सहगल उनमें से एक हैं। एक डॉक्टर, एक सैन्य कमांडर, और आजाद हिंद फौज की ‘झांसी की रानी रेजिमेंट’ की प्रेरक नेता – लक्ष्मी सहगल ने न सिर्फ महिलाओं को सशस्त्र क्रांति का हिस्सा बनाया, बल्कि उन्हें गरिमा और आत्मसम्मान की नई परिभाषा दी। उनकी कहानी साहस, समर्पण और नारी शक्ति की जीवंत मिसाल है।

प्रारंभिक जीवन: चिकित्सा से क्रांति की ओर
24 अक्टूबर 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) में जन्मी लक्ष्मी स्वामीनाथन एक समृद्ध और शिक्षित परिवार से थीं। उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील और मां राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी थीं। चिकित्सा की पढ़ाई पूरी करने के बाद, लक्ष्मी ने सिंगापुर में अपने करियर की शुरुआत की। वहां, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी कब्जे के बीच, उन्होंने एक अस्पताल में सेवा की। लेकिन उनकी नियति कुछ और ही थी।
1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का सिंगापुर आगमन उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। बोस के स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष के आह्वान ने लक्ष्मी के भीतर की देशभक्ति को जगा दिया। उन्होंने चिकित्सा के पेशे को छोड़कर आजाद हिंद फौज में शामिल होने का फैसला किया। यह सिर्फ एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि एक ऐसी क्रांति का हिस्सा बनने का संकल्प था, जो भारत को आजाद कराया।

झांसी की रानी रेजिमेंट: नारी शक्ति का प्रतीक
जुलाई 1943 में, जब नेताजी ने महिलाओं की एक सैन्य इकाई – ‘झांसी की रानी रेजिमेंट’ – बनाने की घोषणा की, लक्ष्मी ने इसकी कमान संभाली। यह रेजिमेंट न सिर्फ भारत की पहली महिला सैन्य टुकड़ी थी, बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध की एकमात्र पूर्ण महिला लड़ाकू इकाई भी। लक्ष्मी, जिन्हें अब ‘कैप्टन लक्ष्मी’ कहा जाता था, ने 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद की अस्थायी सरकार में महिला मामलों की मंत्री की भूमिका भी निभाई।
लक्ष्मी ने रेजिमेंट की महिलाओं को हथियार चलाने, मार्चिंग, नर्सिंग और खुफिया कार्यों का प्रशिक्षण दिया। इस रेजिमेंट में शामिल महिलाएं विविध पृष्ठभूमियों से थीं। मलय के रबर एस्टेट्स में काम करने वाली मजदूर महिलाएं, जो दासता की जंजीरों से मुक्त होना चाहती थीं; शिक्षित युवतियां, जो राष्ट्रभक्ति की आग में जल रही थीं; और यहां तक कि 16 वर्षीय जानकी थेवर जैसी किशोरियां, जिन्होंने अपने गहने बेचकर और शादी का प्रस्ताव ठुकराकर फौज में शामिल होने का फैसला किया।
जानकी की कहानी विशेष रूप से प्रेरणादायक है। जब लक्ष्मी घायल हुईं, तब जानकी ने बर्मा कैंप की कमान संभाली और सबसे कम उम्र की कैप्टन बनीं। लक्ष्मी ने अपनी डायरी में लिखा, “ये महिलाएं पशुओं की तरह व्यवहार की जिंदगी से निकलकर व्यक्ति के रूप में गरिमा पा रही थीं।” यह वाक्य रेजिमेंट की आत्मा को दर्शाता है – यह सिर्फ युद्ध की तैयारी नहीं थी, बल्कि सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने का आंदोलन था।

युद्ध के मैदान में योगदान
झांसी की रानी रेजिमेंट ने इम्फाल और बर्मा अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि उनकी प्रत्यक्ष युद्ध भागीदारी सीमित थी, लेकिन नर्सिंग कोर के रूप में उनकी सेवाएं अनमोल थीं। घायल सैनिकों की देखभाल, रसद पहुंचाना और मोर्चे पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाना – इन रानियों ने हर चुनौती को स्वीकार किया। रंगून के पतन के बाद, जब आजाद हिंद फौज को पीछे हटना पड़ा, तब भी रेजिमेंट ने प्रतिरोधी हमलों और एलाइड हवाई हमलों का डटकर सामना किया।
लक्ष्मी की नेतृत्व शैली में दृढ़ता और करुणा का अनूठा संगम था। वे न सिर्फ एक कमांडर थीं, बल्कि अपनी रानियों की मेंटर और प्रेरणा भी। उनके नेतृत्व में रेजिमेंट ने यह साबित किया कि युद्ध का मैदान सिर्फ पुरुषों का नहीं, बल्कि महिलाओं का भी हो सकता है।
स्वतंत्रता के बाद: एक नई लड़ाई
1945 में आजाद हिंद फौज के भंग होने के बाद लक्ष्मी भारत लौटीं। 1947 में उन्होंने कर्नल प्रेम कुमार सहगल से शादी की और कानपुर में बस गईं। लेकिन उनकी लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई। उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में गरीबों और शरणार्थियों की सेवा की। सामाजिक न्याय के लिए उनकी प्रतिबद्धता उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) तक ले गई, जहां वे एक सक्रिय सदस्य रहीं। 1971 में वे राज्यसभा की सदस्य बनीं और 2002 में वामपंथी दलों ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया।
23 जुलाई 2012 को 97 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उनकी बेटी, सुभाषिणी अली, भी एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता हैं, जो उनकी मां की प्रेरणा को आगे ले जा रही हैं।

आज की प्रासंगिकता
आज, जब भारतीय सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन मिल रहा है और नारी शक्ति को हर क्षेत्र में मान्यता मिल रही है, कैप्टन लक्ष्मी सहगल और उनकी झांसी की रानी रेजिमेंट की कहानी एक मील का पत्थर है। यह हमें याद दिलाती है कि साहस और समर्पण का कोई लिंग नहीं होता। नेताजी के शब्दों में, “अगर भारत में रानी लक्ष्मीबाई जैसी हजारों महिलाएं होतीं, तो ब्रिटिश कभी भारत को गुलाम न बना पाते।”
कैप्टन लक्ष्मी सहगल की कहानी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है, जो बाधाओं को तोड़कर अपने सपनों और देश के लिए कुछ बड़ा करना चाहता है। उनकी जयंती पर, आइए हम उनकी इस भावना को सलाम करें – एक डॉक्टर, जो योद्धा बनी, और एक योद्धा, जो लाखों महिलाओं की प्रेरणा बनी।

संदर्भ:
- ऐतिहासिक अभिलेख, आजाद हिंद फौज
- कैप्टन लक्ष्मी सहगल की डायरी और साक्षात्कार
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाषण और लेख
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