Tashi Namgyal ताशी नामग्याल: वो चरवाहा जिसने ‘याक’ ढूंढते-ढूंढते देश की सरहद बचा ली
Tashi Namgyal इतिहास अक्सर बड़ी जंगों, महान सेनापतियों और आधुनिक हथियारों की कहानियों से भरा होता है। लेकिन भारत के सामरिक इतिहास में एक ऐसा नाम भी दर्ज है, जिसके पास न तो कोई वर्दी थी और न ही कोई बंदूक। उनके पास थी तो बस एक दूरबीन, अपने मवेशियों के प्रति लगाव और एक सजग भारतीय की पैनी नज़र। हम बात कर रहे हैं लद्दाख के ताशी नामग्याल की
लद्दाख की वादियों में एक साधारण जीवन

Tashi Namgyal ताशी नामग्याल का जन्म लद्दाख की खूबसूरत ‘आरयन घाटी’ के गारखोन (Garkone) गांव में हुआ था। वह एक साधारण चरवाहे थे, जिनका जीवन सिंधु नदी के किनारे और ऊंचे पहाड़ों की तलहटियों में अपने याक और भेड़ों को चराते हुए बीतता था। दुर्गम पहाड़ियां और हाड़ कंपा देने वाली ठंड उनका रोजमर्रा का हिस्सा थी। लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन उनकी यही दिनचर्या भारत के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक का केंद्र बन जाएगी।
मई 1999: एक ‘खोया हुआ याक’ और किस्मत का खेल
साल 1999 की गर्मियों की शुरुआत थी। ताशी ने हाल ही में एक नया याक खरीदा था, जो कहीं गुम हो गया था। ताशी के लिए वह सिर्फ एक जानवर नहीं, बल्कि उनकी आजीविका का साधन था। 2 या 3 मई का वह दिन था, जब ताशी अपने याक की तलाश में बटालिक सेक्टर की जुबार पहाड़ियों (Jubar Hills) पर काफी ऊंचाई तक चढ़ गए।
थक कर जब वह एक चट्टान पर बैठे और अपनी दूरबीन से नीचे की घाटियों और ऊपर की चोटियों को निहारने लगे, तो उन्हें कुछ ऐसा दिखा जिसने उनके होश उड़ा दिए। पहाड़ी की चोटी पर कुछ लोग पत्थर हटा रहे थे और बर्फ साफ कर रहे थे। उन्होंने देखा कि वे लोग पठान पोशाक में थे। Tashi Namgyal को तुरंत खटका हुआ कि इस दुर्गम इलाके में, जहां परिंदा भी पर नहीं मारता, वहां ये लोग क्या कर रहे हैं? और सबसे बड़ी बात, वे स्थानीय लोग नहीं लग रहे थे।
जब देश को आगाह किया
Tashi Namgyal के पास दो विकल्प थे—या तो वह अपने याक को ढूंढते रहते, या फिर जो देखा उसे सेना को बताते। उन्होंने देश को चुना। वह पहाड़ियों से भागते हुए नीचे उतरे और पास में स्थित 3 पंजाब रेजिमेंट की चौकी पर पहुंचे।
शुरुआत में सैनिकों को एक चरवाहे की बात पर यकीन करना मुश्किल लगा, क्योंकि उस समय सीमा पर शांति का माहौल था। लेकिन ताशी के दावों में इतनी सच्चाई और घबराहट थी कि सेना ने एक गश्ती दल (Patrol) ऊपर भेजने का फैसला किया। जब वह दल वहां पहुंचा, तो पाकिस्तानी सेना की भारी घुसपैठ की पुष्टि हो गई। ताशी की उस एक सूचना ने ‘ऑपरेशन विजय’ की नींव रखी।
युद्ध का नायक, गुमनामी का साया

कारगिल युद्ध छिड़ा, भारत के करीब 600 वीर जवान शहीद हुए, और अंततः भारत ने अपनी चोटियों को दुश्मन से मुक्त करा लिया। इस जीत के बाद Tashi Namgyal रातों-रात चर्चा में आए। उन्हें सेना के अधिकारियों द्वारा सम्मानित किया गया, प्रशस्ति पत्र मिले और मीडिया में ‘कारगिल का हीरो’ कहा गया।
लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, Tashi Namgyal की कहानी फाइलों में दबती गई। ताशी को इस बात का मलाल हमेशा रहा कि जिस सजगता ने देश को इतने बड़े संकट से बचाया, उसे वह नागरिक सम्मान (जैसे पद्म पुरस्कार) नहीं मिला जिसके वह हकदार थे। वह अक्सर कहते थे, “अगर वो मेरा नया-नवेला याक न होता, तो शायद मैं वहां न जाता और देश को कभी पता नहीं चलता कि दुश्मन घर के अंदर घुस आया है।”
अंतिम विदाई और विरासत
58 वर्ष की आयु में, दिसंबर 2024 में ताशी नामग्याल ने दुनिया को अलविदा कह दिया। वह अपनी मृत्यु तक लद्दाख की उसी मिट्टी से जुड़े रहे, जिसे बचाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। भारतीय सेना ने उनकी याद में हाल ही में एक स्मारक भी बनाया है, ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें कि एक ‘निहत्था चरवाहा’ भी राष्ट्र का रक्षक हो सकता है।
Tashi Namgyal की कहानी हमें सिखाती है कि देशभक्ति के लिए वर्दी की जरूरत नहीं होती, बस एक सजग नागरिक की नजर ही काफी है। वह भले ही युद्ध के मैदान में बंदूक लेकर नहीं लड़े, लेकिन वह उन 600 शहीदों और हजारों सैनिकों की जीत के पहले सूत्रधार थे।
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