नायक प्रेम बहादुर गुरुंग

भारत और नेपाल की सदियों पुरानी दोस्ती का प्रतीक, गोरखा राइफल्स के वीर सपूत, नायक प्रेम बहादुर गुरुंग का नाम भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। 22 नवम्बर, 1956 को नेपाल के सुरम्य गांव सिदनी, जिला कस्की में जन्मे प्रेम बहादुर, श्री कर्ण बहादुर गुरुंग के पुत्र थे। एक साधारण नेपाली परिवार में पले-बढ़े इस बालक ने 22 नवम्बर, 1976 को 3/4 गोरखा राइफल्स में कदम रखा, और बहुत जल्द ही उन्होंने साबित कर दिया कि वह असाधारण साहस के लिए ही बने थे। उनकी कहानी केवल एक सैनिक की नहीं, बल्कि उस अटूट संकल्प की है जो देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने से भी नहीं कतराता।
सियाचिन: जहाँ ज़िन्दगी भी जम जाती है

सितम्बर 1987 में, नायक गुरुंग की बटालियन, 3/4 गोरखा राइफल्स को दुनिया के सबसे ऊंचे और दुर्गम युद्धक्षेत्र – सियाचिन ग्लेशियर – में तैनात किया गया। यह वह जगह है जहाँ दुश्मन से ज़्यादा मुकाबला जमा देने वाली ठंड, बर्फीले तूफानों और पतली हवा से होता है। नायक गुरुंग का सेक्शन बिला फोंडला इलाके में एक महत्वपूर्ण रक्षात्मक चौकी पर तैनात था, जो दुश्मन की हरकतों पर नज़र रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी।
23 सितम्बर, 1987 की रात, दुश्मन ने इस चौकी पर कब्ज़ा करने के लिए एक जबरदस्त धावा बोल दिया। गोरखा जवानों की सतर्कता और दृढ़ जवाबी कार्रवाई के सामने दुश्मन टिक नहीं पाया और उसे भारी नुकसान उठाकर पीछे हटना पड़ा। यह तो बस शुरुआत थी।
आग और बर्फ के बीच अदम्य नेतृत्व

असफलता से बौखलाए शत्रु ने अगली ही रात, 24 सितम्बर को, और भी घातक हमला करने का निश्चय किया। इस बार उन्होंने हमले की शुरुआत भारी तोपखाने (Heavy Artillery) की गोलाबारी से की, जिसका उद्देश्य चौकी को पूरी तरह नष्ट करना था।
भीषण गोलाबारी के बीच, एक दुखद घटना हुई—सेक्शन के कमांडर घायल हो गए। ऐसे नाजुक पल में, जब चारों ओर गोलियाँ बरस रही थीं और जीवन दाँव पर था, नायक प्रेम बहादुर गुरुंग ने तत्काल कमान संभाल ली। यह किसी भी सैनिक के नेतृत्व क्षमता की सबसे बड़ी परीक्षा होती है, और गुरुंग इस पर पूरी तरह खरे उतरे।
उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी गोला-बारूद की कमी। भयंकर गोलाबारी के कारण आपूर्ति लगभग असंभव थी। लेकिन गुरुंग ने हार नहीं मानी। अपनी जान को खतरे में डालते हुए, वह तेज गोलाबारी के बीच दो बार प्लाटून मुख्यालय तक दौड़े और आवश्यक गोला-बारूद लेकर वापस आए। उनके इस अदम्य साहस और कर्तव्यनिष्ठा ने सेक्शन का मनोबल आसमान छूने लगा। गोरखा सैनिकों ने एकजुट होकर दुश्मन के सभी हमलों को विफल कर दिया। इस चरण के युद्ध में शत्रु के 6 सैनिक हताहत हुए।
खुखरी का तांडव: आखिरी और निर्णायक मुक़ाबला
24 सितम्बर को अभी भोर नहीं हुई थी, जब 03:25 बजे दुश्मन ने अंतिम और निर्णायक आक्रमण शुरू किया। पाकिस्तानी सैनिक लगभग 50 मीटर की दूरी तक चौकी के बहुत करीब आ गए थे। खतरा स्पष्ट और भयानक था।
इस क्षण, नायक प्रेम बहादुर गुरुंग ने वह किया जिसने उन्हें एक महावीर बना दिया। खतरे की गंभीरता को भाँपते हुए, उन्होंने अपनी खाई से बाहर निकलकर खुद को दुश्मन के सामने उजागर कर दिया। वह हथगोले और राइफल लेकर अकेले ही शत्रु पर ‘टूट पड़े’। उनका यह अप्रत्याशित, भयंकर और व्यक्तिगत हमला दुश्मन के लिए असहनीय था। शत्रु सेना इस अचानक आए आक्रमण को सह न सकी और सिर पर पाँव रखकर भागने लगी।
पीछा करते हुए, नायक गुरुंग ने पाया कि उनका सारा गोला-बारूद समाप्त हो चुका है। उन्होंने बिना एक पल गंवाए अपनी राइफल फेंक दी और अपनी पारंपरिक गोरखा खुखरी निकाली—एक ऐसा हथियार जो गोरखा सैनिकों की पहचान है। खुखरी हाथ में लेकर, वह भागते हुए शत्रु का पीछा करते रहे। अपनी व्यक्तिगत खुखरी की शक्ति से, उन्होंने दुश्मन के तीन सैनिकों को मार गिराया, जिससे दुश्मन की हमले की क्षमता पूरी तरह ध्वस्त हो गई।
सर्वोच्च बलिदान और महावीर चक्र

यही वह अंतिम और वीरतम मुठभेड़ थी। भागते हुए शत्रु पर प्रहार करते समय, एक दुश्मन की गोली नायक गुरुंग के सीने में आ लगी। वह घातक रूप से घायल हो गए और अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।
नायक प्रेम बहादुर गुरुंग ने न केवल अपनी चौकी की रक्षा की, बल्कि अपनी व्यक्तिगत बहादुरी और नेतृत्व से युद्ध का रुख पलट दिया। उन्होंने अत्यंत विषम परिस्थितियों में, अदम्य साहस, असाधारण वीरता और कर्तव्य के प्रति सर्वोच्च समर्पण का परिचय दिया। राष्ट्र ने उनके इस सर्वोच्च बलिदान को सम्मान दिया।
उन्हें मरणोपरांत भारत के दूसरे सर्वोच्च सैन्य सम्मान, महावीर चक्र (Mahavir Chakra) से अलंकृत किया गया।

नायक प्रेम बहादुर गुरुंग की कहानी हमें याद दिलाती है कि हमारे देश की सीमाएं जिन हाथों में सुरक्षित हैं, उनमें केवल बंदूक नहीं, बल्कि अटूट देशभक्ति और असाधारण शौर्य भी है। उनका बलिदान युगों-युगों तक भारतीय सेना की गौरवशाली परंपरा को प्रेरित करता रहेगा।
जय हिन्द!
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